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प्रकार के धूर्त केवल लोगों के चित्त को रंजन करने में ही प्रयत्नशील रहते हैं। हिन्दुस्तान में वर्त्तमान समय में बावन से अठ्ठावन लाख नामधारी साधु हैं, उनमें कितने एक यशोवाद धन माल आदि के आधीन हो साध्वाचार को जलाजली देते हैं, और कई एक उन्मत्तता में मस्त बनकर शास्त्रमर्यादा का उल्लंघन कर स्वेच्छाधारी हो जाते हैं।
पूर्वोक्त विडम्बकों की प्रशंसा करना यह प्रायः अनाचारों की प्रशंसा करने के समान है, इसलिए इनकी प्रशंसा नहीं करना चाहिए, परन्तु सभा के बीच में इनकी निन्दा भी करना अनुचित है। शीलहीन अनाचारी पुरुषों के साथ में परिचय न रखकर उनकी प्रशंसा, अथवा निन्दा करने का प्रसंग ही नहीं आने देना चाहिए, यह सबसे उत्तम मार्ग है । क्योंकि निन्दा करने से शिथिलाचारियों की शिथिलता मिट नहीं सकती, प्रत्युत बैर विरोध अधिक बढ़ता है। और प्रशंसा करने से शिथिलाचार की मात्रा अधिकता से बढ़ जाती है, जिससे धार्मिक और व्यावहारिक व्यवस्था लुप्तप्राय होने लगती है।
राजा की शिथिलता से प्रबल राज्य का, नियोजकों की शिथिलता से बड़े भारी समाज का, आचार्यों की शिथिलता से दिव्य गच्छ का, साधुओं की शिथिलता से संयमयोग का, पति की शिथिलता से स्त्रियों के व्यवहार का, पिताओं की शिथिलता से पुत्रों के सदाचारों का, और अध्यापकों की शिथिलता से विद्यार्थियों के ज्ञान का नाश होते देर नहीं लगती। अतएव बुद्धिमानों को शिथिलाचारियों की प्रशंसा भी न ही करनी चाहिए।
संसार का विचित्र ढंग है, इसमें नानामतिशाली पुरुष विद्यमान हैं। कोई नीतिज्ञ, कोई कर्मज्ञ, कोई मर्मज्ञ, कोई कृतज्ञ है, तो कोई त्रिकालगत पदार्थों का विवेचन करने में निपुण है, और कोई अद्वितीय शास्त्रज्ञ है, परन्तु स्वदोषों को जानने वाले तो कोई विरले ही पुरुष हैं। बृहस्पति जो कि देवताओं के गुरु कहे जाते हैं, उनसे भी वह पुरुष बुद्धिवान् समझा जाता है, जो कि अपने में स्थित दोषों को ठीक-ठीक जानता है और उनको दूर करने में प्रयत्नशील बना रहता है। 'जब मनुष्य इस बात का अनुभव करता है कि मुझ में जो-जो त्रुटियाँ और अपवित्रताएँ हैं उन्हें मैं ने ही स्वयं उत्पन्न किया
१६४ श्री गुणानुरागकुलक