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प्रकाश, सैद्धान्तिक रहस्यों का ज्ञान, और अनुपम सुखों का अनुभव होता है। गुणी बनने का सब से सरल उपाय यही है कि, पूज्यों का आदर, उनके आने पर खड़े होना, जहाँ-तहाँ उनके गुणों की प्रशंसा करना । पूज्य पुरुषों की निन्दा कभी न करना चाहिये, क्योंकि इससे सद्गुणों की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत निन्दा से प्राप्त गुणों का विनाश होता है। संसार में गुणद्वेषी मनुष्य दुःखी देखे जाते हैं, और गुणप्रशंसा करने वाले लोगों के द्वारा संमानित होते दीख पड़ते हैं ।
अहा ! ! उन सत्पुरुषों को धन्य है जो कि इस संसार में जन्म कर निःस्वार्थवृत्ति से परोपकार करने में अपने जीवन को व्यतीत कर रहे हैं, सैकड़ों दुःख सहनकर संसार रूपी दावानल से सन्तप्त पामर प्राणियों का उद्धार करने में दत्तचित्त हैं, जो किसी में अंशमात्र भी गुण है तो उसको पर्वत के समान मानकर आनन्दित होते हैं, स्वयं दुःख देखते हैं लेकिन दूसरों को दुःखी नहीं होने देते, जो करुणाबुद्धि से संसारी प्राणियों को सुखी होने के उपाय खोजा करते हैं, जो मरणान्त कष्ट आ पड़ने पर भी सत्यमार्ग का उल्लंघन नहीं करते हैं, जो स्वपरहितसाधक व्रतों का पालन करने में सदोद्यत रहते हैं और जो मद मात्सर्य से रहित हो शिष्टाचरण में लगे रहते हैं । वह दिन कब उदय होगा कि जब मैं भी सत्पुरुषों के मार्ग का आचरण करूँगा और सकल कर्मों का क्षयकर अखण्डानन्द विलासी बनूँगा । इस प्रकार शुद्ध भावना के सहित गुणिजनों के गुणों की प्रशंसा कर हृदय को पवित्र करना चाहिये । परमार्थ सिद्धि के लिये पवित्र हृदय की ही आवश्यकता है, धर्मशब्द की व्याख्या करते हुए श्रीमान् श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने 'पुष्टिशुद्धिमच्चित्तं धर्मः' पवित्र विचारों से पुष्ट हुआ अन्तःकरण ही धर्म है अर्थात् हृदय की पवित्रता को ही धर्मतरीके गिना है ।
गुणप्रेमी पुरुष धर्म का मर्म सुगमता से समझ सकता है। ग्रन्थकारों ने लिखा है, कि जो कल्याण की इच्छा रखने वाला, गुणग्राही, सत्यप्रिय, विनीत, निर्मायी, जितेन्द्रिय, नीतिमान्, स्थिर चित्त, विवेकवान्, धैर्यवान्, धर्माभिलाषी और बुद्धिमान् हो, उसी को धार्मिक मर्म समझाना चाहिये, क्योंकि उक्त गुणवाला मनुष्य धार्मिक रहस्यों को भले प्रकार समझकर शास्त्रीय नियमों का स्वयं पालन करता है और दूसरों को भी पालन कराता है । परन्तु अन्तःकरण
१६० श्री गुणानुरागकुलक