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इस श्लोक को सुनते ही कालिदास को असीम आनन्द हुआ, और राजाभोज को उत्तर देने के लिये आखिरी दिन सभा में हाजिर हुए। राजा के पूछने पर कालिदास ने कहा कि महाराज! धर्म का पिता उपकार है। इस बाबत में महात्मा बुद्ध का भी अभिप्राय है कि 'दया उपकार की माता, और उपकार धर्म का पिता है। इस उपकार का प्रकाश जिसके हृदय पट पर पड़ा, वह मनुष्य दिव्यदृष्टि समझा जाता है।'
इस उत्तर को सुनकर राजा भोज अत्यानन्दित हुआ और अपने आश्रित पाँच सौ पण्डितों से सुशोभित सभा में कालिदास का बड़ा भारी सत्कार किया। इसी से कहा जाता है कि संसार में निःस्वार्थ उपकार के प्रभाव से ही मनुष्य पूज्य समझा जाता है। एक भाषाकवि ने भी लिखा है किस्वार्थ बिन उपकार दिव्य गुण कहे जाय, स्वार्थ बिन उपकार धर्म को प्रभाव है। स्वार्थ बिन उपकार सुकृत की सुन्दर माल, स्वार्थ बिन उपकार पूर्ण प्रेमभाव है।। हरि हर जैन बौद्ध स्वार्थ बिन उपकार से, जगत में पूज्य बने पूरण प्रभाव से। ऐसे दिव्यगुण धरी रहो नित्य मगन में, परम उपकार यश गाजे हैं गगन में ||१||
उपकार के विषय में आधुनिक विद्वानों ने भी लिखा है कि-'मनुष्य की श्रेष्ठता उदारता, मोटाई और नम्रता में बसी हुई है, जिनमें परोपकार गुण नहीं है उनका जीना संसार में व्यर्थ और भारभूत है' ___जिसके हृदय में उपकार वृत्ति रहती है उसके हृदय में परमेश्वर निवास करता है, जिसके हृदय में उपकारवृत्ति रूप सिंहासन रक्खा है उस पर परमेश्वर विराजमान होता है, अये पामर ! अपना उपकार रूप चिलकता हीरा परमेश्वर को भेंट कर।'
'अपने पाड़ोसी को तुम देखते हो परन्तु उस पर तुम प्रेम नहीं रख सकते हो, परमेश्वर तो अदृश्य है उस पर प्रेम किस प्रकार रख सकोगे।'
श्री गुणानुरागकुलक १५५