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समझते हैं, लेकिन प्रतिज्ञाभ्रष्ट होना ठीक नहीं समझते। अतएव लजावान् मनुष्य गुणवान बनने के योग्य और धर्म के भी योग्य कहा हुआ है।
३१, सदय :-दुःखी जीवों को दुःख से बचाना अर्थात सखी करना, ऐसे गुण वाला पुरुष धर्म के योग्य होता है। दया के बिना कोई पुरुष धर्म के लायक नहीं हो सकता। दुःखित जीवों को देखकर जिसका अन्तःकरण दया नहीं होता वह अन्तःकरण नहीं है, किन्तु अन्तःकरण (नाशकारक) है। धर्म के निमित्त पञ्चेन्द्रिय जीवों का बध करने वाला धर्म के लायक होना कठिन है, दयावान् पुरुष ही दान पुण्य आदि सुकृत कार्य भले प्रकार कर सकता है। सब दानों में दयादान बड़ा है, जो एक जीव की रक्षा करता है वह भी सदा के लिये निर्भय हो जाता है, तो सब जीवों की रक्षा करनेवालों की तो बात ही क्या कहना है? इसलिये मनुष्यों को निरन्तर सहृदय रहना चाहिये, दयादान देने वाला भवान्तर में सुखी रहता है। सुमेरु पर्वत के बराबर सुवर्णदान से, संपूर्ण पृथिवी के दान से और कोटि गोदान से जितना फल होता है उतना फल एक जीव की रक्षा करने से होता है, इससे गुणाभिलाषिओं को उचित है कि दयालुस्वभाव हो प्राणिमात्र को सुखी बनाने का प्रयत्न करें।
३२, सौम्य-शान्त प्रकृतिवाला पुरुष हर एक सद्गुण को सुगमता से प्राप्त करता है। इसी गुण से पुरुष सब को प्रिय लगता है और इसी से उसको सब कोई उत्तम और रहस्यपूर्ण गुण सिखाने में कसर नहीं करते हैं। क्रूरस्वभावी पुरुषों को कोई कुछ नहीं सिखलाता और न उससे कोई मित्रता ही रखता है। इसलिये उत्तमता की सीढ़ी पर चढ़ने वालों को निरन्तर शान्तस्वभाव ही रहना चाहिये। क्योंकि शान्तस्वभाव वाले पुरुषों के पास हिंसक जन्तु भी वैर भाव छोड़कर विचरते हैं अर्थात् गौ और सिंह आदि भी साथ ही सहवास करते हैं।
३३, परोपकृति कर्मठः-परोपकार में दृढ़ वीर्य (तत्पर) मनुष्य संसारगत मनुष्यों के नेत्रों में अमृत के समान देखता है, और परोपकार रहित पुरुष विष के समान जान पड़ता है। मनुष्य शरीर के अवयव दूसरे जीवों की तुलना में किसी काम में नहीं आते, इससे असार शरीर से परोपकारादि सार निकाल लेना ही प्रशस्य है।
श्री गुणानुरागकुलक १५३