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दोष को पहचानने वाला 'विशेषज्ञ' कहलाता है। जिस मनुष्य में अपने वर्ताव और गुण दोष पर दृष्टि देने की शक्ति नहीं है वह पशु समान ही है, उसे आगे बढ़ने की आशा रखना आकाशकुसुमवत् असम्भव है। जो गुण व दोष आदि को नहीं पहिचानते उनका निस्तार इस संसार से होना असंभव है, अतएव विशेषज्ञ मनुष्य गृहस्थधर्म और गुणग्रहण करने योग्य है।
२८, कृतज्ञः-किये हुए उपकारों को जाननेवाला पुरुष अनेक सद्गुण प्राप्त कर सकता है और जो उपकारों को भूल जाता है अथवा गुण लिये बाद उपकारी पर मत्सर धारण करता है उसमें फिर गुणवृद्धी नहीं हो सकती, और सीखे हुए गुण प्रतिदिन मलीन हो जाते हैं अतएव उत्तमता की सीढ़ी पर चढ़ने वालों को कृतज्ञ हो गुण ग्रहण करने में निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये।
२६, लोकवल्लभः-विनय, विवेक आदि सद्गुणों से प्रामाणिक लोकों को प्रियकर होने वाला पुरुष उत्तमगुणों का संग्रह कर सकता है। यहाँ पर लोक शब्द से सामान्य लोक नहीं समझना चाहिये, सामान्यलोकों का प्रायः कोई वल्लभ नहीं होता, क्योंकि दुनिया दो रंगी है—धर्म करने वालों की भी निन्दा, और न करने वालों की भी निन्दा करती है, कार्य करने वालों में दोष निकालती है,
और नहीं करने वालों को आलसी, अथवा हतवीर्य कहती है। इसी से किसी बुद्धिमान ने कहा है कि 'लोक मूके, पोक, तूं तेरा संभाल' अर्थात् लोक चाहे सो कहता रहे परन्तु तुझे तेरा (अपना) कार्य संभाल लेना चाहिये। इस लोकोक्ति में लोक शब्द से सामान्य लोक का ग्रहण किया है, परन्तु 'लोकवल्लभः' यहाँ तो लोक शब्द से प्रामाणिक लोक ही जानना चाहिये।
30, सलज्ज :- लज्जावान् पुरुष अंगीकार किये हुए नियमों को प्राण नष्ट होने पर भी नहीं छोड़ता, इसी से 'दशवैकालिक-सूत्र' लज्जा शब्द से संजम का ग्रहण किया गया है। संजम का कारण लज्जा है, अतएव कारण में कार्योपचार करने से लज्जा संजम गिना जाता है। लज्जावान् पुरुषों की गिनती उत्तमपुरुषों की पंक्ति में होती है, किन्तु निर्लज्जों की नहीं होती। लज्जा गुण को धारण करने वाले अग्नि में प्रवेश करना, अरण्यवास करना और भिक्षा से जीना अच्छा
१५२ श्री गुणानुरागकुलक