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का पालन करने में जो स्थित है वह 'व्रतस्थ' और जो हेय उपादेय वस्तुओं का निश्चय करने वाले ज्ञान से संयुक्त हो वह 'ज्ञानवृद्ध' कहलाता है। इन दोनों की सेवा कल्पवृक्ष के समान महाफल को देने वाली होती है, व्रतीपुरुषों की सेवा से व्रत का उदय, और ज्ञानवृद्धों की सेवा से वस्तुधर्म का परिचय होता है। इसलिये व्रती और ज्ञानवृद्धों का वन्दन करना, तथा उन के आने पर (अभ्युत्थान) खड़े होना, आदि बहुमान करना चाहिए।
२५, पोष्यपोषक : पोषण करने योग्य माता, पिता, भाई, बहिन, स्त्री, पुत्र आदि परिवार को योगक्षेम से अर्थात् अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति और प्राप्त वस्तु की रक्षा करता हुआ पोषण करना चाहिये, जिससे कि लोक-व्यवहार में बाधा न पड़े, क्योंकि लोक-व्यवहार की बाधा धर्मसाधन में विघ्नभूत है, अतएव पोषण करने के लायक को पोषण करने वाला मनुष्य सद्गुणी बनता है। 'दीर्घदर्शी विशेषज्ञः, कृतज्ञो लोकवल्लभः । सलज्जः सदयः सौम्यः, परोपकृति कर्मठः ।।६।।'
२६, दीर्घदर्शी : अर्थ, अनर्थ दोनों का विचार करने वाला मनुष्य दीर्घदर्शी कहा जाता है। दीर्घ विचार करने वाला मनुष्य हर एक कार्य को विचारपूर्वक करता है, किन्तु सहसा नहीं करता। कहा भी है किसहसा विदधीत न क्रिया-भविवेकः परमाऽऽपदां पदम् । वृणते हि विमृश्य कारिणं, गुणलुब्धाः स्वयंमेव संपदः।।१।।
तात्पर्य बिना विचार किये किसी क्रिया को न करे, अविवेक पूर्वक की हुई क्रिया परम आपत्ति की स्थानभूत होती है। विचार पूर्वक कार्य करने वालों को गुण में लुब्ध हुईं अर्थात् गुणाभिलाषिणी संपत्तियाँ स्वयमेव वरण करती हैं, अर्थात् उसके समीप में चली आती हैं। दीर्घदर्शी पुरुषों में भूत, भविष्यत् काल का विचार करने की शक्ति होती है। अर्थात् अमुक कार्य करने से हानि और अमुक कार्य करने से लाभ होना संभव है इस प्रकार विचार करने वाला सफल कार्य ही सुखी और गुणी होता है।
२७, विशेषज्ञ-वस्तु अवस्तु कृत्य, अकृत्य, आत्मा और पर में क्या अन्तर है ? उसको जानने वाला। अथवा आत्मा के गुण व
श्री गुणानुरागकुलक १५१