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स्थैर्य, प्रियभाषण और परोपकार आदि स्वपरहितकारक और आत्मसाधन में सहायक जो गुण हैं उनमें पक्षपात, उनका बहुमान तथा उनकी प्रशंसा करना वह 'गुणपक्षपात' कहा जाता है। गुणों का पक्षपात करने वाले मनुष्यों को भवान्तर में मनोहर गुणों की प्राप्ति होती है। गुणद्वेषियों को किसी गुण की प्राप्ति नहीं होती, कई एक स्वात्मवैरी गुणवानों के गुणों पर द्वेषभाव रखते हैं और इसी से उन्हें अनर्थजनक अनेक कर्म बाँधना पड़ते हैं। अत एव किसी समय गुणद्वेषी न होना चाहिए, किन्तु समस्त जगज्जन्तुओं के गुणों की अनुमोदना करना चाहिए। अदेशकालयोश्चर्या, त्यजेज्जानन् बलाबलम् । वृतस्थज्ञानवृद्धानां, पूजकः पोष्यपोषकः ||८||
भावार्थ–२२, निषेध किये हुए देश और काल की मर्यादा का त्याग करने वाला पुरुष गुणी बनने और गृहस्थ धर्म के योग्य होता है। निषिद्ध देश में जाने से एक लाभ और अनेक हानियाँ हैं, लाभ तो धनोपार्जन है और धर्म की हानी, व्यवहारनिःशूकता तथा हृदयनिष्ठुरता आदि अनेक दुर्गुण प्राप्त हो जाते हैं। आर्य देश को छोड़ कर अनार्यभूमि में जाने वाले पुरुषों का प्रथम धार्मिक मनुष्यों से समागम नहीं होता। निरन्तर प्रत्यक्ष प्रमाण को मानने वाले अर्वाक्दशी और मांसाशी पुरुषों का समागम होता रहता है जिससे नास्तिक बुद्धि, अथवा अधर्मश्रद्धा उत्पन्न होती है। गङ्गा का जल मिष्ट स्वादु और पवित्र माना जाता है परन्तु समुद्र में मिलने पर वह खारा हो जाता है इसी प्रकार विदेश के गमन समय में पुरुष धार्मिक, सरलस्वभावी और दृढ़ मनवाला होता है लेकिन धीरे-धीरे विदेशी लोगों की संगत से उसके स्वभाव में मलिनता आ जाती है।
___ कोई यह कहेगा कि सांसारिक कार्य के लिये जाने वाला पुरुष गंगाजल की दशा को प्राप्त हो सकता है परन्तु कोई दृढ़धर्मी जगत्मान्य मनुष्य आर्यधर्म के तत्त्वों का प्रचार करने के लिए जाय तो क्या परेशानी है?
इसका उत्तर यह है कि सर्पमणि के समान जो पूर्ण (जानकार) हैं उनके वास्ते कोई प्रतिबन्ध नहीं है, पूर्ण मनुष्य चाहे जहाँ जा सकता है। सर्प और मणि का एक ही स्थान में जन्म तथा विनाश
श्री गुणानुरागकुलक १४६