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यदि कहा जाय कि धर्म और काम की सेवा करना तो ठीक है, लेकिन अर्थ अनेक अनर्थों का उत्पादक है, इसलिए अर्थ की सेवा करना अनुचित है ?, धर्म से परभव का सुधार और काम से सांसारिक सुखों का अनुभव होता है।
इसके समाधान में हम इतना ही कहना चाहते हैं कि- गृहस्थावास में अर्थ (धन) के सिवाय धर्म और काम की सेवा यथार्थ रूप से नहीं बन सकती, क्योंकि धनोपार्जन नहीं करने से ऋणी होना पड़ता है। और ऋणी मनुष्य चिंतायुक्त होने से देव गुरु की भक्ति नहीं कर सकता, तथा चिन्तायुक्त मनुष्य से सांसारिक सुखों का भी अनुभव नहीं हो सकता। अत एव धर्म और काम सेवा के साथ-साथ अर्थ सेवा की भी अत्यन्त आवश्यकता है ।
यदि कोई यह कहेगा कि धर्म और अर्थ की सेवा करने वाला ऋण नहीं होता, अतः धर्म तथा अर्थ की सेवा करना चाहिए परन्तु दुर्गतिदायक काम की सेवा क्यों की जाय ? काम से तो करोड़ों कोश दूर ही रहना उत्तम है ? |
यह बात प्रशस्य है, तथापि यहाँ गृहस्थ-धर्म का विषय है इसलिए काम के अभाव में गृहस्थाऽभावरूप आपत्ति आ पड़ने की संभावना है। इस वास्ते तीनों वर्ग की योग्य रीति से सेवा करने वाला मनुष्य धर्म के लायक होता है। और वही मनुष्य सद्गुणी बनकर आत्मसुधार, तथा समाजसुधार कर सकता है।
पाठकगण ! धर्म, अर्थ और काम में बाधा पड़ने की संभावना हो तो पूर्व में बाधा न होने देना चाहिए। कदाचित् कर्मवश से चालीस वर्ष की अवस्था में स्त्री की मृत्यु हो जाय तो फिर विवाह करने में व्यवहारविरुद्ध और शास्त्रविरुद्ध है, इससे ऐसे अवसर में चतुर्थव्रत धारण कर धर्म और अर्थ की सुरक्षा करना चाहिए। यदि स्त्री धन दोनों का नाश होने का समय प्राप्त हुआ तो केवल धर्म की साधना करने में दत्तचित्त रहना चाहिए। क्योंकि 'धर्मवित्तास्तु साधवः' सज्जन पुरुष धर्मरूप द्रव्यवाले होते हैं ।
धर्म के प्रभाव से धन चाहने वालों को धन, कामार्थियों को काम, सौभाग्य के चाहने वालों को सौभाग्य, पुत्रवांछकों को पुत्र, और राज्य के अभिलाषियों को राज्य प्राप्त होता है। अर्थात् धर्मात्मा
श्री गुणानुरागकुलक १४७