________________
होता है अर्थात् साथ ही जन्म और विलय है परन्तु सर्प का विष मणि में और मणि का अमृत सर्प में नहीं आ सकता, क्योंकि दोनों अपने २ विषय में पूर्ण हैं। इस प्रकार मनुष्य जो पूर्ण हो तो वह चाहे जिस देश में जा सकता है उसका विग्रह कहीं नहीं हो सकता, लेकिन अपूर्ण तो सर्वत्र अपूर्ण ही रहता है।
अपूर्ण का उत्साह क्षणिक और विचार निश्वर होता है तथा उसके हृदय में धर्म वासना हल्दी के रंग के समान होती है। आर्यभूमि में हजारों प्राणी जंगली हैं उनको विदेशी प्रजा धन, स्त्री आदि का लालच देकर स्वधर्मी बना रही है इसलिए उनको धर्मभ्रष्टता से उबारना हर एक आर्यधर्मी पुरुषों का काम है। अर्हन्नीति में विदेशगमन का निषेध किया है उसका खास हेतु धर्महानी ही है। अत एव पूर्ण मनुष्य के बिना अपूर्ण मनुष्यों को निषिद्ध देश में भूल कर भी नहीं जाना चाहिए। बुद्धिमानों को निषिद्धकाल की मर्यादा का भी त्याग करना जरूरी है, क्योंकि रात्रि का समय कितने एक पुरुषों के लिए बाहर फिरने का नहीं है। अर्थात रात्रि में बाहर फिरने से कलङ्कित होने की तथा चौरादिक की शंका पड़ती है। चौमासे में प्रवास या यात्रा भी नहीं करनी चाहिए, इस मर्यादा का उल्लंघन करने से अनेक उपद्रव और हिंसादिक की वृद्धि होती है। इससे निषिद्धदेश व काल की मर्यादा का त्याग करने वाला मनुष्य सुखी होता है।
२३, 'जानन् बलाबलं' : स्व पर का बल और अबल जानने वाला गृहस्थ धर्म के लायक है। बल की परीक्षा किये बिना कार्य का प्रारंभ करना निष्फल है और जो बल तथा अबल का ज्ञानकर कार्य करते हैं उनका कार्य सफल होता है। बलवान् व्यायाम करे तो उसका शरीर पुष्ट होता है और निर्बल मनुष्य व्यायाम करेगा तो उसकी शरीर संपत्ति का नाश होता है। क्योंकि शरीरशक्ति के उपरान्त परिश्रम करने से शरीराऽवयवों को नुकसान पहुँचता है, अत एव बल के प्रमाण में कार्यारम्भ करना चाहिये, जिससे चित्तव्याकुलता न हो सके और स्वच्छचित्त से सद्गुण प्राप्ति हो।
२४, व्रतस्थज्ञानवृद्धानां पूजक : व्रती और ज्ञानवृद्ध पुरुषों की सेवा करने वाला गुणी बनता है। अनाचार त्याग और सदाचार
१५0 श्री गुणानुरागकुलक