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पुरुष जो कुछ भी चाहे उसे उसकी प्राप्ति अवश्य होती है। स्वर्ग और मोक्ष भी जब धर्म के प्रभाव से मिल सकता है तब और वस्तुओं की प्राप्ति हो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अत एव गृहस्थों को उचित है कि धर्म के समय में धर्म, धन के समय में धनोपार्जन, और काम सेवन के समय में काम इस प्रकार यथाक्रम और यथासमय में सेवन करें, परन्तु परस्पर बाधा हो वैसा होना ठीक नहीं । 'यथावदतिथौ साधौ, दीने च प्रतिपत्तिकृत् । पक्षपाती गुणेषु च । । ७ । । '
सदाऽनभिनिविष्टश्च
भावार्थ - १६, अतिथि, साधु और दीन में यथायोग्य भक्ति करने वाला गुणी बनने लायक होता है। जिन्होंने तिथि और दीपोत्सवादि पर्व का त्याग किया है उन को अतिथि और दूसरों को अभ्यागत कहना चाहिए। 'साधुः सदाचाररतः' उत्तम पञ्च महाव्रतपालनरूप सदाचार में लीन रहते हैं वे 'साधु' और त्रिवर्ग को साधन करने में जो असमर्थ हैं वे 'दीन' कहे जाते हैं। इन तीनों की उचितता पूर्वक भक्ति करना चाहिए, अन्यथा – अधर्म होने की संभावना है, क्योंकि पात्र को कुपात्र और कुपात्र को पात्र की पङ्कित में गिनने से अधर्म की उत्पत्ति होती है। नीतिकारों का कहना है कि—
नीतिरूप काँटा है उसके एक पलड़े में औचित्य ( उचितता ) और दूसरे पलड़े में क्रोड़गुण रक्खे जाँय तो उचिततावाला पलड़ा नीचा नमेगा अर्थात् क्रोगुण से भी उचितता अधिक है, अत एव उचितता प्रमाणे भक्ति करना उत्तम है।
२०, 'सदाऽनभिनिविष्टश्च' - निरन्तर आग्रह नहीं रखने वाला पुरुष गुण ग्रहण करने योग्य होता है । आग्रही मनुष्य स्वमति कल्पना के अनुसार युक्तियों को खींचता है और अनाग्रही पुरुष सुयुक्तियों के अनुसार स्वमति (बुद्धि) को स्थापित करता है। जगत में सुयुक्तियों से कुयुक्ति अधिक हैं, कुयुक्तिसंपन्न मनुष्य अपरिमित हैं परन्तु सुयुक्ति संपन्न तो विरले ही हैं । जहाँ आग्रह नहीं होता वहाँ युक्तियों का आदर होता है, इस वास्ते गुणेच्छुओं को नित्य आग्रह रहित रहना चाहिए जिससे सद्गुणों की प्राप्ति हो ।
२१, 'पक्षपाती गुणेषु च ' - गुणों में पक्षपात रखने वाला पुरुष उत्तम गुणोपार्जन कर सकता है अर्थात् सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य,
१४८ श्री गुणानुरागकुलक