________________
आलश आना, पेट का फूलना, भोजन में रुचि कम होना और गन्धीलि डकार आना; अजीर्ण होने के ये छे चिह्न स्पष्ट होते हैं।
उक्त छः कारणों में से यदि एक भी कारण मालूम पड़े तो भोजन अवश्य छोड़ देना चाहिये, क्योंकि ऐसे अवसरों पर भोजन छोड़ने से जठराग्नि के विकार भस्म होते हैं। धर्मशास्त्र भी पखवाड़े में एक उपवास करने की सूचना करते हैं। यदि भोजनादि व्यवस्था नियम से की जाय तो प्रायः प्रकृति विकृति के कारण रोग होना असंभव है। कर्मजन्य रोगों को मिटाने के लिये तो कोई उपाय ही नहीं है। वर्तमान समय में कई एक मनुष्य उपवास की जगह जुलाब लेना ठीक समझते हैं; लेकिन यथार्थ विचार किया जाय तो जुलाव लेना उभयलोक में हानिकारक है। जुलाब लेने से प्रकृति में फेरफार होता है, किसी किसी वख्त तो वायु प्रकोप हो जाने से जुलाब से भारी हानि पहुंचती है, और शरीर स्थित कृमी का नाश होता है, इत्यादि कारणों से जुलाब उभयलोक में दुःखदायक है।
उपवास, पखवाड़े में खाये हुए अन्न को पचाता है, मन को निर्मल रखता है, विकारों को मन्द करता है, अन्नपर रुचि बढ़ाता है
और रोगों का नाश करता है। अतएव जुलाब की अपेक्षा उपवास करना उत्तम है। अजीर्ण न हो तो भी थोड़ा भोजन करना अच्छा है क्योंकि यथाग्नि खाने से भोजन रस वीर्य का उत्पादक होता है। 'यो मितं भुङ्क्ते स बहु भुङ्क्ते' अर्थात् जो थोड़ा खाता है वह बहुत खाता है, इसलिये अजीर्ण में भोजन नहीं करने वाला सुखी रहकर गुणवान् बनता है।
१७, काले भोक्ता च सात्म्यतः- अर्थात् प्रकृति के अनुकूल यथा समय सात्म्य भोजन करने वाला पुरुष निरोगी रहकर गुणी और धर्मात्मा बनता है। जो पान, आहार आदि प्रकृति के अनुकूल सुख के लिये बनाया जाता है वह 'सात्म्य' कहलाता है। बलवान् पुरुषों के लिये तो सब पथ्य ही है परन्तु योग्य रीत से योग्य समय में प्रकृति योग्य पदार्थों का सेवन किया जाय तो शरीर की स्वास्थ्यता सचवा सकती है और शरीर स्वस्थता से धर्मसाधन तथा सद्गुणोपार्जन में किसी तरह की बाधा नहीं पड़ सकती।
१८, 'अन्योन्याप्रतिबन्धेन, त्रिवर्गमपि साधयेत्।' अर्थात् परस्पर विरोधरहितपने धर्म अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग की साधना
१४४ श्री गुणानुरागकुलक