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एक भी स्त्री नहीं मिलती, कदाचित् मिली तो मनोऽनुकूल नहीं; वे पुरुष दुःखी हो बंधे हुए घोड़े की तरह ब्रह्मचर्य पालें तो वास्तव में ब्रह्मचारी नहीं कहे जा सकते। किन्तु जिनको भोगों की सब सामग्री तैयार है और अपनी इच्छा के अनुसार चलनेवाली स्त्रियाँ हैं उस अवस्था में किसी प्रकार विषयकीचड़ से उपलिप्त न होना वही वास्तविक त्यागी-(ब्रह्मचारी) है। क्यों विरक्त मनुष्य संसार के भोगों को काले सर्प के फण के समान विषम जानकर इन्द्रियों के विषयों को विषमिश्रित अन्न के समान और स्त्रियों के पुद्गलजन्य सुखों को तृण के समान असार जानकर विषयाशक्ति को छोड़ मोक्ष को प्राप्त होता है।
अतएव किंपाकफल के समान आदि ही में सुखद और अन्त में दुःखद जानकर मैथुन से विरक्त हो अखंड ब्रह्मचर्य धारण करना चाहिए, क्योंकि जलते हुए लोहस्तंभ का आलिंगन करना श्रेष्ठ है किन्तु अनेक अनर्थों का कारण भूत स्त्री जघन का सेवन उत्तम नहीं है। जो लोग स्त्रियों के संभोग से कामज्वर को शान्त करना चाहते हैं वे घृत की आहुति से अग्नि को बुझाने की इच्छा करते हैं।
चारित्र का प्राण और मोक्ष का मुख्य हेतु भूत ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले सत्पुरुष पूज्यों से भी संमानित होते हैं। अनेक क्लेशों और चुगलियों का घर 'नारद' केवल ब्रह्मचर्य से ही मोक्ष अधिकारी बनता है, ब्रह्मचर्य से ही समस्त गुण उज्ज्वल हो सब के आदरणीय होता है। अन्य दर्शनों का भी कहना है कि एक दिन ब्रह्मचर्य पालने से जो फल प्राप्त होता है वह हजार यज्ञों से भी नहीं होता है। जिनमें ब्रह्मचर्य है और जो हमेशा सत्यवाणी बोला करते हैं उनको गंगा भी ढूँढा करती हैं। कितने एक लोग गंगास्नान करने के लिए जाते हैं लेकिन गंगा उनसे अपने को पवित्र नहीं मानती, किन्तु पवित्र होने के लिए ब्रह्मचारी और सत्यवादियों का नित्य अन्वेषण किया करती है। अधुवं जीवियं नच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया। विणियद्दिज्ज भोगेसु, आउम्मि परिमियप्पणो।।१।।
भावार्थ जीवित को अनिश्चित, ज्ञान, दर्शन, चारित्र को मोक्षमार्ग और आयु को परिमित जानकर विषयादि भोगों से विरक्त होना चाहिये, अर्थात् जीवित स्थिर नहीं है। रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है
और आयु प्रमाणयुक्त है, ऐसा समझकर बुद्धिमानों को अखंड ब्रह्मचर्य धारण करना चाहिए।
११४ श्री गुणानुरागकुलक