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शब्दार्थ-(जो) जो (पुरिसो) मनुष्य (धम्म-अत्थपमुहेसु) धर्म अर्थ प्रमुख (पुरिसत्थेसु) पुरुषार्थों में (अन्नोन्नं) परस्पर (अवाबाह) बाधारहित (पवठ्ठइ) प्रवृत्ति करता है, (एसो) वह (मज्झिामरूवो) मध्यमरूप (हवइ) होता है।
भावार्थ-जो धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों को परस्पर बाधारहित साधन करता है, वह 'मध्यमपुरुष' कहलाता है।
विवेचन-धर्म, अर्थ और काम को किसी प्रकार की बाधा न पड़े, इस प्रकार तीनों पुरुषार्थों का उचित सेवन करने वाले मनुष्य मध्यमभेद में गिने जाते हैं। इससे यह बात भी स्पष्ट जान पड़ती है कि ऐसा पुरुष मार्गानुसारि गुणों के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि 'धर्म, अर्थ और काम को परस्पर बाधारहित सेवन करना' यह मार्गानुसारी गुणों में से इक्कीसवाँ गुण है, अत एव मार्गानुसारि, सदाचार प्रिय और मध्यस्थ स्वभाव वाले पुरुष मध्यमभेद में गिने जा सकते हैं। हरएक धर्म से सार सार तत्त्व को खींच लेना, सदाचार संपन्न मनुष्यों के सद्गुणों पर अनुरागी बनना, और कलह से रहित हो समानदृष्टि रहना यह मार्गानुसारी पुरुषों का ही काम है। मार्गानुसारी पुरुषों का हृदय आदर्श के समान है, उसमें सद्गुणों का प्रतिबिम्ब पड़े बिना नहीं रह सकता, और वह प्रतिबिम्ब प्रतिदिन बढ़ता ही रहता है। मार्गानुसारी पुरुषों की आत्मा महान कार्य सम्पादन के लिये या अनन्त या असंख्य भवों की व्याधि मिटाने के लिये और आत्मशक्ति, विचार बल, या नीतिशास्त्र का विकास करने के लिये समर्थ होता है। अत एव प्रसंग प्राप्त मार्गानुसारी गुणों का स्वरूप लिखा जाता है, जिनको मनन करने से मनुष्य उच्च कोटि में प्रवेश कर सकता है। 'न्यायसंपन्नविभवः, . शिष्टाचारप्रशंसकः । कुलशीलसमैः सार्धं, कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः' ।।१।।
१ 'न्यायसंपन्नविभवः'–प्रथम न्यायोपार्जित द्रव्य हो तो उसके प्रभाव से सभी सद्गुण प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु न्याय को जाने बिना न्याय का पालन भले प्रकार नहीं हो सकता, अतएव न्याय का स्वरूप यह है कि-"स्वामिद्रोहमित्रद्रोहविश्वसितवञ्चनचौर्याऽऽदिगार्थोपार्जन परिहारेणार्थोपार्जनोपायभूतः स्वस्ववर्णानुरूपः १३० श्री गुणानुरागकुलक