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समझना, प्राणावसान में भी अकार्य नहीं करना, दुर्जनों से प्रार्थना, और अल्पधनी मित्र से याचना नहीं करना, इस प्रकार असिधारा के समान दुर्घट सत्पुरुषों का व्रत किस ने कहा ?, अर्थात् सत्यवक्ता
और तत्त्ववेत्ताओं ने प्रकाशित किया है, अतएव मनुष्यों को शिष्टाचार प्रशंसक अवश्य बनना चाहिए।
३ 'कुलशीलसमैः सार्धं, कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः।' जिनका कुल शील समान हो और भिन्नगोत्र हो उनके साथ विवाह करना चाहिये।
कुल-पिता, पितामहादि पूर्ववंश, और शील– मद्यमांस निशिभोजनादि का त्याग।
पूर्वोक्त कुल और शील समान होवे तो स्त्री पुरुषों को धर्मसाधना में अनुकूलता होती है, परन्तु जो शील की समानता न हो तो नित्य कलह होने की संभावना है। उत्तमकुल की कन्या लघुकुल के पुरुष को दबाया करती है, और नित्य धमकी दिया करती है कि मैं पीहर चली जाऊँगी। अगर नीचकुल की कन्या हुई तो पतिव्रतादि धर्म में बाधा पड़ने का भय रहता है। इसी तरह शील में भिन्नता होने से प्रत्यक्ष धर्मसाधन में हानि दीख पड़ती है, क्योंकि एक तो मद्यपान मांसाहार अथवा रात्रिभोजन करने वाला है और दूसरे को उस पर अप्रीति है, ऐसी दशा में परस्पर प्रेमभाव कहाँ से बढ़ सकेगा और सांसारिक सुख का आनन्द कहाँ से आ सकता है ?| अतएव समान कुल और शील की परमावश्यकता है, इसी से दंपतिप्रेम अभिवर्जित हो सकता है।
वर्तमान समय में एक धर्म के दो समुदाय दीख पड़ते हैं, जिनमें केवल क्रियाकाण्ड का ही भेद है, उन में कन्या व्यवहार (संबंध) होता है किन्तु बाद में धर्म विरुद्धता के कारण पति पत्नी के बीच में जीवित पर्यन्त वैर विरोध हुआ करता है जिससे वे परस्पर सांसारिक सुख भी भले प्रकार नहीं देख सकते, तो फिर कुलशील असमान हो, उनकी तो बात ही क्या कहना है ?। क्योंकि ऐसे संबंध में तो प्रत्यक्ष प्रेमाऽभाव दृष्टिगोचर होता है।
भिन्नगोत्रवालों के साथ में विवाह करने का तात्पर्य यह है कि—एक पुरुष का वंश 'गोत्र', और उसमें उत्पन्न होने वाले 'गोत्रज' कहलाते हैं। गोत्रज के साथ में विवाहित होने से लोकविरुद्धता रूप १३६ श्री गुणानुरागकुलक
होता है।