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इस प्रकार नीतिसंपन्न द्रव्य से मच्छीमार का सुधार और अनीतिसंपन्न द्रव्य से योगी के संयमयोग का नाश ये दोनों बातें राजा के पास सभा में जाहिर की गईं, उनको सुनकर राजा समझ गया कि वास्तव में नीतिमान् पुरुष निर्भय रहते हैं और अनीतिमान् सर्वत्र शङ्कित रहते हैं, तथा नीतिमान् पुरुषों के पास लक्ष्मी स्वयमेव चली जाती है। कहा भी है कि'निपानमिव मण्डूकाः, सरः पूर्णमिवाण्डजाः । शुभकर्माणमायान्ति, विवशाःसर्वसंपदः' ।।१।। ___ भावार्थ-जिस प्रकार मंडूक (देड़का) कूप, और पक्षिसमूह जलपूर्ण सरोवर के पास स्वयमेव जाते हैं, उसी प्रकार नीतिमान् मनुष्य के पास शुभकर्म से प्रेरित हो सर्वसंपत्तियाँ स्वयमेव चली जाती हैं।
अतएव न्यायपूर्वक द्रव्य उपार्जन करना यह गृहस्थधर्म का प्रथम कारण और मार्गानुसारी का प्रथम गुण है। इसलिए शुद्धान्तःकरण (ईमानदारी) के साथ जिस तरह हो सके न्यायपूर्वक ही द्रव्य पैदा करना चाहिए, जिससे उभयलोक में सुख प्राप्त हो सके।
२, शिष्टाचारप्रशंसक-अर्थात भव्य पुरुष को शिष्ट पुरुषों के आचार की प्रशंसा करने वाला होना चाहिए। क्योंकि शिष्टाचार प्रशंसक मनुष्य किसी दिन उत्तम आचार को अवश्य प्राप्त कर सकता है। व्रती, ज्ञानी और वृद्धपुरुषों की सेवा से जिनने शिक्षा प्राप्त की है वे 'शिष्ट, और शिष्टों का जो आचार वह 'शिष्टाचार' कहा जाता है। अथवा लोकापवाद से डरना, अनाथ प्राणियों का उद्धार करने में आदर रखना, कृतज्ञता और दाक्षिण्यता आचरण करना, उसको भी शिष्टाचार (सदाचार) कहते हैं। सत्पुरुषों के आचार की प्रशंसा कवि इस प्रकार करते हैंविपद्युच्चैः स्थैर्य पदमनुविधेयं च महतां, प्रिया न्याय्या वृत्तिमीलनमसुभतेऽप्यसुकरम् । असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यस्तनुधनः, सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ?' ||१||
भावार्थ-विपत्तिसमय में ऊँचे प्रकार की स्थिरता रखना, महापुरुषों के पद अनुकरण करना, न्याययुक्त वृत्ति को प्रियकर
श्री गुणानुरागकुलक १३५