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लक्ष्मी अग्नि, राजा और चोर विनाश करते हैं। इसी से शास्त्रकारों ने धर्म में चौथा भाग, आधा भाग, अथवा आधे से अधिक जितना खर्च करते बने, उतना खर्च करने के लिये ही 'समधिक' पद लिखा है।
अतः लाभार्थी पुरुषों को कृपणता छोड़कर आवदानी के अनुसार खर्च करने में उद्यत रहना चाहिये। ऐसा कौन मनुष्य है जो चञ्चल लक्ष्मी से निश्चल धर्मरत्न को प्राप्त न करे ?।
१३, 'वेषं वित्तानुसारतः'- वित्त (धन) के अनुसार से वेष रखना चाहिये, जिससे संसार में प्रामाणिकता समझी जाय। जो द्रव्यानुसार पोशाक नहीं रखते वे लोक में उड़ाऊ, चोर और जार समझे जाते हैं अर्थात् लोग कहते हैं कि यह 'धनजी सेठ' बना फिरता है, तो क्या किसी को ठगकर या चोरी करके द्रव्य लाया है ? अथवा किसी को ठगने के लिये बन ठन कर जाता है। इसी प्रकार द्रव्य संपत्ति रहते भी अनुचित वेष न रखना चाहिये। क्योंकि द्रव्यवान् को खराब वेष रखने से कृपणता सूचित होती है, अतएव द्रव्य के अनुसार उचित पोशाक रखने वाला पुरुष लोक मान्य गिना जाता है और लोक मान्यता धर्मसाधन में सहायभूत होती है।
१४, 'अष्टभिर्धीगणैर्युक्तः, शृण्वानो धर्ममन्वहम् ।' अर्थात् बुद्धि के आठगुणों से युक्त मनुष्य निरन्तर धर्मश्रवण करता हुआ गुणवान् होने के योग्य होता है। धर्मश्रवण से आधि, व्याधि और उपाधि मिटती है, अभिनव पदार्थों का ज्ञान होता है, सुन्दर सद्विचारों का मार्ग दीख पड़ता है, कषाय भाव कम होता है और वैराग्यमहारत्न की प्राप्ति होती है। धर्मश्रवण में बुद्धि के आठ गुण होना आवश्यकीय है अन्यथा धर्मश्रवणमात्र से कुछ फायदा नहीं हो सकता।
यथा-कोई एक पुराणी रामायण वाँच रहा था उसमें 'सीताजी हरण भया' यह अधिकार आया। सभा उपस्थित एक श्रोता ने विचारा कि सीताजी हरण तो हो गये, परन्तु पीछे सीताजी होंगे या नहीं ?। कथा तो समाप्त हो गई परन्तु उस श्रोता की शंका का समाधान नहीं हो सका, तब उसने पुराणी से पूछा कि महाराज ! सब बात का तो खुलासा हुआ, किन्तु एक बात रह गई। पुराणी भ्रम में पड़ा कि क्या पत्रा फेर फार हो गया, या कोई अधिकार भूल गया अथवा हुआ क्या ? जिससे श्रोता कहता है कि एक बात रह गई।
श्री गुणानुरागकुलक १४१