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वाले पुरुषों के धर्मकार्य हास्याऽऽस्पद होते हैं, अतएव ऐसे कार्यों में प्रवृत्ति करना अनुचित है। 'व्ययमायोचितं कुर्वन्, वेषं वित्तानुसारतः । अष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः, शृण्वानो धर्ममन्वहम् | ||५||
भावार्थ–१२, आवदानी के अनुसार खर्च करना, अधिक अथवा न्यून खर्च करने से व्यवहार में प्रामाणिकता नहीं समझी जाती। क्योंकि अधिक खर्चा करने से मनुष्य 'फूलणजी' की और न्यून खर्चा करने से 'मम्मण' की पंक्ति में गिना जाता है। अतएव कुटुम्बपोषण में, अपने उपयोग में देवपूजा और अतिथि सत्कार आदि में आवदानी प्रमाणे समयोचित द्रव्य व्यय करना चाहिये। शास्त्रकारों ने द्रव्य व्यवस्था के विषय में लिखा है कि‘पादमायान्निधिं कुर्यात्, पादं वित्ताय घट्टयेत् । धर्मोपभोगयोः पादं, पादं भर्त्तव्यपोषणे ।।१।।'
भावार्थ आवदानी का चतुर्थांश भंडार में रखना, चौथा भाग व्यापार में, चौथा भाग धर्म तथा उपभोग में, और चौथा भाग पोषणीय कुटुम्बवर्ग में लगाना चाहिये। अथवा'आयाद) नियुञ्जीत, धर्मे समधिकं पुनः । शेषेण शेषं कुर्वीत, यत्नतस्तुच्छमैहिकम् ।।२।।'
भावार्थ—आवदानी से आधा भाग, अथवा आधे भाग से अधिक धर्म में लगाना चाहिये, और शेष द्रव्य से सांसारिक तुच्छ (विनाशी) कार्य करना चाहिये। यदि आवदानी के प्रमाण में धर्म न करे, किन्तु संचयशील बना रहे, तो वह पुरुष कृतघ्नी है, क्योंकि जिस धर्म के प्रभाव से सुखी, धनी और मानी बनते हैं उस धर्म के निमित्त कुछ द्रव्य न खर्च किया जाय तो कृतघ्नीपन ही है। किसी कवि ने लिखा है किलक्ष्मीदायादाश्चत्वारो, धर्माग्निराजतस्कराः । ज्येष्ठपुत्रापमानेन, कुप्यन्ति बान्धवास्त्रयः ।।१।।
अर्थात् लक्ष्मी के धर्म, अग्नि, राजा और चोर ये चार दाय भागी पुत्र हैं, सब से बड़ा और माननीय पुत्र धर्म है, धर्म का अपमान होने से तीनों पुत्र कुपित हो जाते हैं, अर्थात् धर्महीन मनुष्य की १४0 श्री गुणानुरागकुलक