Book Title: Gunanuragkulak
Author(s): Jinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashak Trust

View full book text
Previous | Next

Page 138
________________ राज्यलक्ष्मी के विषय में तत्त्ववेत्ता पुरुषों का अभिप्राय कुछ और ही है, अत एव किसी व्यापारी के यहाँ से मंगवाना चाहिये। राजा के पास हजारों व्यापारी उपस्थित थे, उनकी तरफ राजा ने देखा, किन्तु कोई व्यापारी बोला नहीं। तब मंत्री ने कहा- जो कोई नीतिपूर्वक व्यापार करता हो, उसको आज राजवल्लभ बनने का समय है । परन्तु सब कोई अपने कर्त्तव्यों को जानते हैं, जो कभी स्वप्न में भी नीतिपथ के दर्शन नहीं करते, वे यदि नीतिज्ञ बनना चाहें तो कब बन सकते हैं? | सब लोग मौन पकड़ कर चुपचाप बैठ रहे। तब राजा ने कहा- क्या मेरे शहर में कोई भी नीति से व्यापार करने वाला नहीं है ? इतने में एक प्रामाणिक मनुष्य ने कहा कि - राजन् ! 'पाप आप, और मा जाने बाप' इस लोकोक्ति के अनुसार यहाँ उपस्थित सभी अन्यायप्रिय मालूम पड़ते हैं। लेकिन इस शहर में 'लल्लणसेठ' कभी अनीति का व्यापार नहीं करता, किन्तु इस समय वह यहाँ हाजिर नहीं है । इस बात को सुनकर राजा ने सेठ को बुलाने के लिये सवारी के सहित मंत्री को उसके घर पर भेजा। मंत्री ने सेठ के घर पर जाकर कहा – सेठजी! चलिये, आपको राजा साहब बुलाते हैं, इसीलिये यह सवारी भेजी है। सेठ आनन्दित हो कपड़ा पहनकर चलने के लिये तैयार हुआ। मंत्री ने सवारी में बैठने को कहा। तब सेठ ने जवाब दिया कि आपके घोड़े मेरा दाना पानी नहीं खाते, अत एव इसमें मैं नहीं बैठ सकता, मैं तो पैदल ही चलूंगा, ऐसा कहकर प्रधान के साथ सेठ पैदल चलकर राजा के पास आया, और राजा को नमस्कार कर उचित स्थान पर बैठ गया । राजा ने सेठ से कहा कि – तुम्हारे पास न्याय संपन्न विभव है, इससे खातमुहूर्त के लिये पाँच जाति के पाँच रत्न चाहिये। सेठ ने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर कहा कि- राजन् ! नीति का द्रव्य अनीतिमार्ग में नहीं लग सकता। सेठ का वचन सुनते ही राजा सरोष हो बोला कि तुम्हें रत्न देना पड़ेंगे ? सेठ बोला - स्वामिन् ! यह घर-बार सब आपका ही है, आप चाहें जब ले सकते हैं। इतने में ज्योतिषियों ने कहा कि- हुजूर! यों लेना भी तो अन्याय है क्योंकि जब तक सेठ प्रसन्न होकर अपने हाथ से न देवे, और वे जबरदस्ती लिये जायँ तो अन्याय नहीं तो और क्या है ? | राजा ने १३२ श्री गुणानुरागकुलक

Loading...

Page Navigation
1 ... 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200