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समान, रसिक क्रीड़ा का प्रवाहमय, कामदेव का प्रियबन्धु, चतुर वचनरूपी मोतिओं का समुद्र, सौभाग्यलक्ष्मी का निधिभूत, और स्त्रियों के नेत्ररूपी चकोरों को आनन्दित करने में पूर्णचन्द्र ऐसे नवीन यौवन को प्राप्त हुए सत्पुरुष मनोविकार की मलिनता से कलंकित नहीं बनते, अतएव उनकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही थोड़ी है।
ये दम्पती निर्विकारी और भावचारित्र की पात्रता को धारण कर उत्तमोत्तम शीलविषयक विचार करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगे ।
इसी अवसर में 'चंपा' नगरी में 'विमलकेवली' पधारे, उनके सदुपदेशों को सुनकर 'जिनदास' सेठ ने पूछा कि स्वामिन् ! चौरासी हजार तथारूप साधुओं को पारणा कराने का मैंने अभिग्रह लिया है, वह कब पूर्ण होगा ? विमलकेवली भगवान् ने कहा कि चौरासी हजार साधुओं का एकदम समागम मिलना दुर्लभ है, कदाचित् दैवयोग से मिल भी जाय तो इतने साधुओं के लिए एक ही घर में निर्दोष आहार का मिलना आकाशपुष्पवत् है। इसलिए कच्छदेशस्थ कौशाम्बी नगरी में स्थित शीलालङ्कार सुशोभित विजयकुँवर और विजयाकुँवरी की अशनादिक से भक्ति करो, उससे उतना ही पुण्य होगा जितना तुम चाहते हो। कहा भी है कि— चउरासीइसहस्साणं, समणाणं पारणेणं जं पुणं । सीलपियकंतभत्तेण । । १ । ।
तं किण्हसुक्क पक्खे – सु
भावार्थ - चउरासी हजार साधुओं को पारणा के दिन बहिराने से जो पुण्य होता है उतना कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष में शीलप्रिय — विजयकुँवर और विजयाकुँवरी के भक्त को होता है ।
इस बात को सुन 'जिनदास' कौशाम्बी नगरी में जाकर नागरिक लोगों के और उनके माता पिताओं के आगे उन दोनों का दुर्द्धर आश्चर्योत्पादक चरित्र प्रकट करता हुआ और शुद्ध अन्न पान वस्त्र आदिक से भक्ति कर अपने स्थान को पीछा लौट आया। तदनन्तर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई मानकर विजयकुँवर और विजया कुँवरी पारमेश्वरी दीक्षा महोत्सवपूर्वक लेते हुए और निरतीचार चारित्र पालनकर मोक्षधाम को प्राप्त हुए ।
१२० श्री गुणानुरागकुलक