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रथनेमि था उसी में आई और भीजें हुए कपड़ों को उतार कर सुखाने लगी।
दिव्यरूपधारिणी संयती के अङ प्रत्यडों को देखकर रथनेमि फिर कामातुर हो भोगों के लिए प्रार्थना करने लगा, तब संयती राजीमती ने धैर्य धारण कर कहा किअहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगविण्हिणो । मा कुले गंधणे होमो, संजमं निहुओ चर ||८|| ___भावार्थ हे रथनेमि ! मैं उग्रसेन राजा की पुत्री हूँ, और तूं समुद्रविजय राजा का पुत्र है, इससे ऐसे प्रशस्तकुल में उत्पन्न हो विषसदृश वान्त विषयरस का पानकर स्व स्व उत्तम कुल के विषे गंधनजाति के सर्प समान नहीं होना चाहिए। अतएव मन को स्थिरकर संजम को आचरण कर, अर्थात् निदोष चारित्र पालन कर। जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ । वायाविट्स व्व हडो, अडिअप्पा भविस्ससि ।।६।।
भावार्थ-तूं जिन २ स्त्रियों को देखेगा उन्हीं-उन्हीं स्त्रियों के विषय में 'यह सुन्दर है यह अतिसुन्दर है' इस वास्ते इसके साथ काम विलास करूँगा, इस प्रकार के भावों को जो करेगा तो पवन से ताड़ित नदी जलोपरि स्थित हड नामक वनस्पति के समान अस्थिरात्मा होगा। अर्थात् संयम में जिसकी आत्मा स्थिर नहीं है उसको प्रमादरूप पवन से ताड़ित हो संसार में अनन्तकाल तक इधर उधर अवश्य घूमना पड़ेगा।
संयती राजीमती के वैराग्यजनक सुभाषित वचनों को सुनकर 'रथनेमि' ने अंकुश से जैसे हस्ती स्वभावस्थित होता है वैसे विषयों से जीवितपर्यन्त विरक्त हो संयमधर्म में अपनी आत्मा को स्थिर किया।
___ यहाँ पर यह शंका अवश्य होगी कि जो चारित्र लेकर विषयाभिलाषी होवे, और फिर भ्रातृपत्नी के साथ कामसेवन की इच्छा रक्खे, यह नितान्त अनुचित है, तो उसको पुरुषोत्तम कहना ठीक नहीं है।
इसका समाधान टीकाकार महर्षियों ने ऐसा किया है कि कर्म की विचित्रता से रथनेमि को विषयअभिलाषा तो हुई, परन्तु उसने इच्छानुरूप विषयों को सेवन नहीं किया, किन्तु १२४ श्री गुणानुरागकुलक