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विवेचन-स्त्रियों का स्मरण न करना, स्त्रियों के श्रृंगारादि का गुण वर्णन न करना, स्त्रियों के साथ हास्य कुतूहल न करना, स्त्रियों के अङ्ग प्रत्यक्ष का अवलोकन न करना, स्त्रियों से एकान्त में बात न करना, स्त्री-संबंधी कल्पना मन में न लाना, स्त्रियों से मिलने का संकेत न करना, और स्त्रियों से शारीरिक संग न करना, यही ब्रह्मचारी पुरुषों का मुख्य कर्तव्य है। जो लोग इससे विपरीत बर्ताव करते हैं, उनका ब्रह्मचर्य खंडित हुए बिना नहीं रहता।
इसी से महर्षियों ने कहा है कि जिस प्रकार मूसे को बिल्ली का, मृग को सिंह का, सर्प को मयूर का, चोर को राजा का, मनुष्यादि प्राणियों को कृतान्त (यम) का और कामी को लोकापवाद का भय रहता है उसी प्रकार ब्रह्मचारी पुरुषों को स्त्रियों से नित्य भय रखना चाहिए, क्योंकि स्त्रियाँ स्मरणमात्र से मनुष्यों के प्राण हर लेती हैं, अतएव मनुष्यों को चाहिए कि अपनी योग्यता उच्चतम बनाने के लिए मन को विषयविकारों से हटाने का अभ्यास करें, क्योंकि 'अप्पवियारा बहुसुहा' जो अल्पविकारी होते हैं वे जीव बहुत सुखी हैं, ऐसा शास्त्रकारों का कथन है।
कदाचित् संयोगवश मानसिक विकार कभी सतावे तो उनको शीघ्र रोकने की तजवीज करना चाहिए।
अर्थात् स्त्रियों के रूप वगैरह देखने से जो मानसिक विकार उत्पन्न होवे तो यह विचार करना चाहिए कि स्त्रियाँ मेरा कल्याण नहीं कर सकतीं, किन्तु मुझे इनके संयोग और वियोग से जिस समय अनेक दुःख होंगे, उस समय स्त्रियाँ कुछ सहायक नहीं हो सकेंगी। स्त्रियों में फसने से पहिले संकट भोगने पड़ते हैं, फिर कामभोग मिलते हैं, अथवा प्रथम कामभोग मिले तो पीछे संकट भोगना पड़ते हैं, क्योंकि स्त्रियाँ कलह को उत्पन्न करने वाली होती हैं। विषयों में आसक्त रहने से नरकादि गतियों का अनुभव करना पड़ता है, अतएव विषयों में चित्त को जोड़ना ठीक नहीं है।
जो पुरुष युवतिगत मनोविकार को शीघ्र खींचकर फिर सम्हल जाते हैं और फिर आजन्म विषयादि विकारों के आधीन न हो अखंड ब्रह्मचर्य पालन करते हैं वे पुरुष 'रथनेमि' की तरह उत्तमोत्तम कोटी में प्रविष्ट हो सकते हैं, क्योंकि पड़कर सम्हलना बहुत मुश्किल है, यहाँ पर इसी विषय को दृढ़ करने के लिए रथनेमि का दृष्टान्त लिखा जाता है
१२२ श्री गुणानुरागकुलक