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जिस समय भगवान् 'अरिष्टनेमि' ने राज्यादि समस्त परिभोगों का त्याग कर संयम स्वीकार किया, तब उन का बड़ा भाई रथनेमि काम से पीड़ित हो सतीशिरोमणि बालब्रह्मचारिणी रूपसौभाग्यान्विता 'राजीमती' की परिचर्या करने लगा, रथनेमि का अभिप्राय यह था कि यदि मैं राजीमती को सन्तुष्ट रक्खूँगा तो वह मेरे साथ भोगविलास करेगी, परन्तु राजीमती तो भगवान् के दीक्षा लेने के बाद बिलकुल भोगों से विरक्त हो गई थी।
रथनेमि का यह दुष्टअध्यवसाय राजीमती को मालूम हो गया, इससे वह एकदिन शिखरिणी का भोजन कर के बैठी थी, उसी समय रथनेमि उसके पास आया, तब राजीमती ने मयणफल को सूँघकर खाये हुए भोजन का वान्त किया, और कहा कि हे रथनेमि ! इस वान्त शिखरिणी को तूं खा ले। रथनेमि ने कहा- यह भोजन क्या खाने योग्य हैं ? भला इसे मैं कैसे खा सकता हूँ ?
राजीमती ने कहा जो तूं रसनेन्द्रियविषयभूत शिखरिणी को नहीं खा सकता, तो भगवान अरिष्टनेमिजी की उपयुक्त मेरी वांछा क्यों करता है, क्या यह अकार्य करना तुझको उचित है। इसलिएधिरत्थु तेऽजसोकामी !, जो तं जीवियकारणा ।
वंतं इच्छसि आवेउं, सेयं ते मरणं भवे ||७||
भावार्थ- हे अयशस्कामिन् ! तेरे पौरुषत्व को धिक्कार हो, जो तूं असंयम से जीने की इच्छा से वान्तभोगों के भोगने की इच्छा करता है। मर्यादा उल्लंघन करने से तो तेरा मरना ही कल्याणरूप है, अर्थात् अकार्य प्रवृत्ति से तेरा कल्याण नही होगा। क्योंकि जलती हुई अग्नि में पैठना अच्छा है, परन्तु शीलस्खलित जीवित रहना अच्छा नहीं है।
राजीमती के ऐसे वचनप्रहारों से सम्हलकर रथनेमि वैराग्य से दीक्षित हुआ। उधर राजीमती ने भी संसार को असार जानकर चारित्र ग्रहण कर लिया। एक समय रथनेमि द्वारा नगरी में गोचरी लेने को गया, वहाँ ऊँच नीच मध्यम कुलों में पर्यटन कर पीछा भगवान के पास आते हुए रास्ते में वर्षा वरसने से पीड़ित हो एक गुहा में ठहर गया । इतने में राजीमती भी भगवान् को वन्दनकर पीछी लौटी, और वर्षा बहुत होने लगी, इससे 'वर्षा जब तक बंद न हो तब तक कहीं ठहरना चाहिए ?' ऐसा विचार कर जिस गुहा में
श्री गुणानुरागकुलक १२३