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उत्तमोत्तमपुरुषों का स्वरूप
"एवंविहजुवइगओ, जो रागी हुज कहवि इगसमयं
वीयसमयम्मि निंदइ,
तं पावं सव्वभावेणं। १७) भावार्थ-(एवंविह) इस प्रकार की सर्वोत्तमरूपवाली (जुवइगओ) स्त्रियों में प्राप्त (जो) जो पुरुष (कहवि) किसी प्रकार (इगसमयं) एक समयमात्र (रागी) विकारी (हुज) हो (वीयसमयम्मि) दूसरे समय में (तं) उस (पावं) पाप को (सन्वभावेणं) सर्वभाव से (निंदइ) निन्दता है।
*जम्मम्मि तम्मि न पुणो, हविज्ज रागी मणम्मि कया।
सो होइ उत्तमुत्तमरूवो पुरिसो महासत्तो। १८। भावार्थ- (पुणो) फिर (तम्मि) उस (जम्मम्मि) जन्म में (कया) कभी (मणम्मि) मन में (रागी) विकारी (न) नहीं (हविज) हो (सो) वह (महासत्तो) महासत्त्ववान् (पुरिसो) पुरुष (उत्तमुत्तमरूवो) उत्तमोत्तमरूप (होइ) होता है, अर्थात् कहा जाता है।
भावार्थ सर्वोत्तमरूपवाली स्त्रियों में प्राप्त पुरुष कदाचित् समयमात्र विकारी हो, दूसरे समय में सम्हलकर यदि पूर्णभाव से उस पाप की निन्दा अर्थात् पश्चाताप करता है और फिर जन्मपर्यन्त जिसका मन विकाराधीन नहीं होता, वह मनुष्य उत्तमोत्तम और महाबलवान् कहा जाता है।
एवंविधयुवतिगतो, यो रागी भवेत्कथमप्येकसमये । द्वितीय समये निन्दति, तत्पापं सर्वभावेन ।१७। जन्मनि तस्मिन्न पुन-र्भवेद्रागी मनसि कदाचित् । स भवत्युत्तमोत्तम-रूपः पुरुषो महासत्त्वः । १८|
श्री गुणानुरागकुलक १२१