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* साहू वा सड्डो वा, सदारसंतोससायरो हुज्जा । सो पुण उत्तममणुओ, नायव्वो थोवसंसारो । । २० । ।
शब्दार्थ - (जो ) जो (साहू) साधु (जुवईरूवं) स्त्रियों के रूप को (पिच्छिय) अवलोन कर (खणमेगं) क्षणमात्र (मणसा) मनसे ( चिंतेइ ) विषय की चिन्ता करता है ( अहव) अथवा ( इत्थीहिं) स्त्रियों से (पत्थिज्जंतो वि) प्रार्थित-याचित होने पर भी ( अकज्ज) अकार्य ( नायर ) नहीं आचरण करता ।। १६ ।। (साहू) साधु (वा) अथवा (सड्डो) श्रावक (सदारसंतोससायरो) स्वस्त्री में अतीवसन्तोषी (हुज्जा) हो (सो) वह साधु और श्रावक (थोवसंसारो) अल्पसंसारी (उत्तममणुओ) उत्तम मनुष्य (नायव्वो) जानना चाहिए।
भावार्थ–युवावस्थावाली रूपवती स्त्रियों को अवलोकनकर क्षण भर मन से विषयभोग की इच्छा, अथवा स्त्रियों से भोग के लिए प्रार्थित होने पर भी जो पुरुष विषयाचरण नहीं करता, किन्तु साधु हो तो स्वकीय ब्रह्मचर्य, व श्रावक हो तो ब्रह्मचर्य अथवा स्वदारसन्तोषव्रत पालन करता रहता हो वह 'उत्तम' पुरुष कहा जाता है।
विवेचन - जिन साधु अथवा स्वदारसन्तोषी श्रावकों का चित्त युवतियों के रूप हाव भाव आदि को देखकर चल विचल नहीं होता, वे महापुरुष उत्तम कोटी में समझे जा सकते हैं। इससे यह बात सिद्ध हुई की साधुओं को संसारावस्था में रमणियों के साथ की हुई कामक्रीड़ा का स्मरण न कर सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन कर वीर्यरक्षा करने में उद्यत रहना चाहिए। क्योंकि जिसने वीर्यरक्षा नहीं की, वह धर्म के ऊँचे सोपान पर चढ़ने के लिए असमर्थ है।
वीर्य मनुष्य के शरीर का राजा है, जैसे राजा बिना राज्य व्यवस्था नहीं चल सकती, वैसे ही वीर्यहीन मनुष्य प्रभारहित हो कम - हिम्मत होता है, इससे वह अपनी आत्म-शक्ति का विकास भले
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साधुर्वा श्राद्धो वा, स्वदारसन्तोषसादरो भवेत् ।
स पुनरुत्तममनुष्यो, ज्ञातव्यः स्तोकसंसारः । 201
१२६ श्री गुणानुरागकुलक