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ही रहते हैं, उनकी कीर्ति संसार में छाई रहती है, और स्वर्ग तथा मोक्ष के सुख अतिसमीप आ जाते हैं। शास्त्रकार महर्षियों का कथन है कि
सीलं सत्तरोगहरं, सीलं आरुग्गकारणं परमं । सीलं दोहग्गहरं, सीलं सिवसुक्खदायारं । ।१ ।।
भावार्थ-शील प्राणियों का रोग हरण करने वाला, शील आरोग्यता का उत्कृष्ट कारण, शील दौर्भाग्य का नाशक, और शील मोक्षसुख का देनेवाला होता है।
अतएव स्त्रियों को शील की रक्षा करने का अवश्य प्रयत्न करना चाहिए। जो स्त्रियाँ शील की सुरक्षा न कर कुशील सेवन किया करती हैं, वे उभयलोक में अनेक दुःख देखा करती हैं। जिस स्त्री का चाल चलन अच्छा होता है उसकी सब कोई प्रशंसा करते हैं। दुश्चरित्रा स्त्रियों का न कोई विश्वास करता है और न कोई उनसे प्रीति ही रखते हैं।
आर्यिकाओं के इन सुबोध वचनों को सुनकर विजया ने 'स्वपतिसन्तोषव्रत' लिया और वह भी कृष्णपक्ष में सर्वथा ब्रह्मचर्य धारण करने का नियम स्वीकार किया। पाठक गण ! यद्यपि अभी ये दोनों कौमार्यावस्था में ही हैं तो भी दोनों ने कितना दुर्द्धर व्रत ग्रहण किया है ? यही इनके सर्वोत्तमोत्तमता के लक्षण हैं। भवितव्यतावशात् रूप लावण्य और अवस्था समान होने से दोनों का विवाह - संयोग जोड़ा गया। माता पिताओं को दोनों (बालक तथा बालिका) की प्रतिज्ञा की मालूम नहीं थी, इससे इनका परस्पर विवाह हो गया । रात्रि के समय विजया सोलह श्रृंगार सजकर और दिव्य वस्त्र धारण कर पति के शयनागार में प्राप्त हुई, तब विजयकुँवर ने अत्यन्त मधुर वचनों से कहा कि
सुभगे ! तूं मेरा हृदय, जीव, उच्छ्वास और प्राण है, क्योंकि संसार में प्राणियों के प्रिया ही सर्वस्व है। तुम्हारे सदृश प्रियतमा को पाकर मैं स्वर्गलोक के सुखों को भी तृणसमान समझता हूँ। परन्तु शुक्लपक्ष में मैंने त्रिकरणशुद्धिपूर्वक सर्वतः ब्रह्मचर्य धारण किया है, अब केवल उस पक्ष के तीन दिन बाकी हैं, इसलिए उनके वीत जाने
११८ श्री गुणानुरागकुलक