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**आजम्मबंभयारी, मणवयकाएहिं जो धरइ सीलं।
सव्वुत्तमुत्तमो पुण, सो पुरिसो सव्वनमणिज्जो। १६| शब्दार्थ- (पच्चंगुभाजुचणवंतीणं) प्रति अंगों में प्रकट है यौवन जिनका, (सुरहिसार-देहाणं) सुगन्धमय है शरीर जिनका, और सव्वुत्तमरूववंतीणं) सब से उत्तमरूपवाली (जुवईणं) युवतियों के (मज्झगओ) मध्य में रहा हुआ (जो) जो (मणवयकाएहिं) मन वचन और काया से (अजम्भबंभयारी) जन्मपर्यन्त ब्रह्मचारी रह (सीलं) शील को (धरइ) धारण करता है (सो) वह (पुरिसो) पुरुष (सन्चुत्तमुत्तमो) सर्वोत्तमोत्तम कहा जाता है (पुण) फिर वह (सब्बनमणिज्जो) सब लोगों के वन्दन करने योग्य होता है।
भावार्थ-युवावस्था, सुगन्धमय शरीर सौन्दर्यसंपन्न स्त्रियों के बीच में रहकर भी जो अखण्ड ब्रह्मचर्य धारण करता है वह पुरुष 'सर्वोत्तमोत्तम' और सबका वन्दनीय होता है।
विवेचन-संसार में दान देना, परीषह सहना, तपस्या से शरीर को सुखादेना, दया पालन करना, ध्यान आदि क्रियाओं का करना तो सुकरहै परन्तु आजन्म ब्रह्मचर्य धारण करना अत्यन्त दुष्कर है। बड़े-बड़े योद्धा पुरुष भी कामदेव के आगे कायर बन जाते हैं तो इतर मनुष्यों की कथा ही क्या है ?, क्योंकि कामदेव बड़ा भारी योद्धा है। यह तपस्वियों के हृदय में भी खलबलाहट किये बिना नहीं रहता, अर्थात् जिसके हदय में इसने प्रवेश किया उसका फिर संयमित रहना कठिन है। इससे भगवन्तों ने उन्हीं को त्यागी कहा कि
जे य कंते पिए भोए, लद्धेऽवि पिडि कुव्वइ। साहीणे चइए भोए, से हु चाइ ति वुच्चइ।।
भावार्थ-जो पुरुष मनोहर, मनोऽनुकूल और स्वाधीनता प्राप्त भोगों को शुभभावना से छोड़ देता है। अर्थात जिनको जन्मभर में
आजन्मब्रह्मचारी, मनोवचः कायैर्यो धरति शीलम् । सर्वोत्तमोत्तमः पुनः, स पुरुषः सर्वनमनीयः । १६|
श्री गुणानुरागकुलक ११३