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उत्तमोत्तम सद्गुण दूसरे संसारी किसी जीव में नहीं हों, वे सर्वज्ञ दयासागर जगज्जीव हितैषी उत्तमोत्तम पुरुष कहे जाते हैं।
महानुभाव ! इस प्रकार ग्रन्थान्तरों में पुरुषों के छः विभाग किये गये हैं। शास्त्रों में योग्यायोग्य पुरुषों का बहुत स्वरूप दिखलाया गया है, यहां तो बिलकुल संक्षेपस्वरूप लिखा है। इस स्वरूप को अवलोकन और मननकर यह विचार करना चाहिए कि पूर्वोक्त भेदों में से मैं किस पंक्ति में हूं ?, मेरे में इनमें से कौन 2 लक्षण पाये जाते हैं ?, ऐसा विचार करने पर यदि मालूम हो कि अब तक तो मैं नीच — पंक्ति में ही हूँ तो ऊंची पंक्ति में जाने का प्रयत्न करना चाहिए, और यदि यह मालूम हो कि मैं ऊँचे नम्बर की पंक्ति
हूँ तो उत्तरोत्तर ऊँची पंक्ति में पहुँचने की अभिलाषा रखनी चाहिए और अपने से नीची पंक्ति में रहे हुए जो लोग हैं, उन पर दयालु स्वभाव रख उन्हें सद्मार्ग में जोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए।
लोग बालविवाह, वृद्धविवाह, कन्याविक्रय करते हैं, एक स्त्री पर अनभिलाषा रख, दूसरी स्त्री से विवाह कर सपत्नी संबंध जोड़ते हैं और अवाच्यपशुओं की तरह बेदरकारी रखते हैं, वे भी 'अधमाधम पुरुषों' में सामिल हैं अतएव अधमाधम कार्यों को सर्वथा छोड़ देना चाहिये, क्योंकि अधम कार्यों से मनुष्य ऊंची दशापर नहीं चढ़ सकता ।
आजकल प्रायः छोटे २ जन्तुओं की दया पालन की जाती है। परन्तु पञ्चेन्द्रिय जीव को आजन्म दुःख में डालते हुए कुछ भी विचार नहीं किया जाता।
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अब श्रीमान् जिनहर्ष गणि विषयविकारों की न्यूनाधिक्य से पुरुषों के छः भेद दिखलाते हुए सर्वोत्तमोत्तम पुरुषों का वर्णन करते हैं
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* पंचगुब्भडजुव्व वंतीणं सुरहिसारदेहाणं | जुवईणं मज्झगओ,
सव्वुत्तमरूववंतीणं ।। १५ । ।
प्रत्यङ्गोद्भटयौनव-वतीनां
मध्यगतः,
युवतीनां
११२ श्री गुणानुरागकुलक
सुरभिसारदेहानाम् । सर्वोत्तमरूपवतीनाम् । १५ ।