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प्रकार होते हैं (पुरिसा) चारों भेद वाले पुरुष (पसंसणिज्जा) प्रशंसा करने योग्य हैं। (य) और (जे) जो (अहम) अधम १, और (अहम—अहमा) अधमाऽधम २, (गुरुकम्मा) बहुल कर्मी, (धम्मवज्जिया) धर्ममार्गसे रहित ये दो प्रकार के (पुरिसा) पुरुष हैं, (ते वि) वे भी (निंदणिज्जा) निन्दनीय (न) नहीं हैं (किंतु) तो क्या ?, (तेसु) उन पर भी (दया) दयालु परिणाम (कायब्वा) रखना चाहिये।
भावार्थ-प्रथम के चार भेद वालों की प्रशंसा करना, और दूसरे दो भेदवालों भी प्रशंसा न करते बने तो उनकी निन्दा को अवश्य छोड़ देना चाहिये।
विवेचन संसार में अपने शुभाऽशुभ कर्म के संयोग से प्राणीमात्र को उत्तम, मध्यम और अधम दशा प्राप्त होती है और उसी के अनुसार उनकी मनःपरिणति शुद्धाशुद्ध हुआ करती है। जो लोग परनिन्दा, परदोषारोप, परसमृद्धि में आमर्ष, कपट, निर्दय परिणाम और अभिमान आदि दोषों को आचरण करते हैं, उनको एक-एक योनी की अपेक्षा अनेक बार अधम दशा का अनुभव करना पड़ता है। जो महानुभाव दोषों को सर्वथा छोड़ कर सरलता, निष्कपट, दया, दाक्षिण्यता आदि सद्गुणों का अवलम्बन करते हैं वे यथायोग्य उत्तम, मध्यम अवस्था को पाते हैं। यह बात तो निश्चय पूर्वक कही जा सकती है कि जो जैसा स्वभाव रखेगा वह उसी के अनुसार योग्यता का पात्र बनेगा और सांसारिक व धार्मिक कार्यों में अग्रगण्य समझा जायगा। महर्षियों ने जन सुधार के निमित्त जो जो आज्ञाएँ दी हैं, और उत्तम-उत्तम उपाय बतलाये हैं उनको श्रद्धापूर्वक पालन करने से सद्गुणों, की प्राप्ती होती है और उभय लोक में अखण्ड यशः प्रताप फैलता है।
छः प्रकार के पुरुषग्रन्थकार महर्षियों ने सर्वोत्तमोत्तम १, उत्तमोत्तम २, उत्तम ३, और मध्यम ४, इन चार भेद वालों की मुक्तकंठ से प्रशंसा करने के लिए उपदेश दिया है। क्योंकि ये चारों भेद वाले पुरुष धर्मात्मा और धर्मानुरागी होते हैं, इससे इनकी प्रशंसा करने से मनुष्य सद्गुणी बनता है। दुनिया में 'सर्वोत्तमोत्तम' पंक्ति में सब दोषों से रहित और अनेक प्रभावशाली अतिशयान्वित, श्रीतीर्थङ्कर भगवान तथा 'उत्तमोत्तम' कोटि में सामान्य केवली भगवन्त दाखिल हैं, 'उत्तम' कोटी में पंचमहाव्रतधारी, अखंड ब्रह्मचर्य व्रत पालक, मुनि महाराज और १०६ श्री गुणानुरागकुलक