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भावार्थ अर्थ और काम को छोड़कर संसार में कोई ऐसा परमार्थ नहीं है कि जिसके लिए मिले हुए सुखों को छोड़कर अदृष्ट सुखों की आशा की जाय। क्योंकि जाति, विद्या, रूप, कलासमूह, गुण और विज्ञान; ये सब अर्थ (धन) से ही शोभा को प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार विषयवश हो अधमबुद्धि लोग स्वयं परमार्थमार्ग से पतित होते हैं, और दूसरों को भी दुर्गति के भाजन बनाते हैं। इससे ये लोग 'अधम' हैं। _ जैसे-मूर्खमति मृग व्याधगीत को सुखरूप मानता है, पतंग-सहर्ष हो दीपशिखा में पड़ता है। इसी तरह अधम मनुष्य दुःस्वरूप और अर्थ और काम की वासना में सुख मानते हुए नरकादि स्थानों के पात्र बनते हैं, अर्थात् अधम लोगों के सब व्यापार स्वात्मविनाश के लिए होते हैं। जो महानुभाव सदुपदेश और आगमप्रमाण मिलने पर भी अपने नास्तिकपन को नहीं छोड़ते वे भी अधमपुरुषों की श्रेणी में समावेश किये जाते हैं।
३—जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काम की आराधना सांसारिक सुखों के वास्ते करते हैं, मोक्ष की निन्दा और प्रशंसा नहीं करते हैं, जैसे 'नालिकेरद्वीप' निवासी मनुष्य, धान्य के ऊपर रुचि और अरुचि नहीं लाते किन्तु मध्यस्थभाव रखते हैं, उसी प्रकार जो मोक्ष के विषय में अभिलाष और अनभिलाष नहीं रखते, केवल इस लोक में ऋद्धि संपन्न मनुष्यों को देख कर धर्म साधन में प्रवृत्त होते हैं और मन में चाहते हैं कि हमको रूप, सौभाग्य, विभव, विलास, पुत्र, पौत्रादि परिवार, तथा समस्त पृथ्वीमण्डल का राज्य, दान, शील, तप
और भाव आदि धर्मकरणी के प्रभाव से जन्मान्तर (दूसरे जन्म) में मिले। अर्थात् समृद्धि के लिए ही जो तीर्थसेवा, गुरुभक्ति, परोपकार
और दुष्कर क्रिया करते हैं और लोक विरुद्ध कार्यों का त्याग कर धक्रिया में प्रवृत्त होते हैं, तथा पाप से डरते हैं, और सुगति तथा कुगति को मानते हैं; वे 'विमध्यम' हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र ये चार वर्ण पूर्वोक्त कार्यों के करने से विमध्यम पुरुषों में गिने जाते हैं।
४—जो सम्यग्दृष्टि, चक्रवर्ती प्रमुखों के विभव और विषयादिसुखभोग के अभिलाषी हो निदान करते हैं वे भी इसी भेद में गिने जाते हैं। ये लोग धर्मार्थी होने पर भी यथार्थवक्ता गुरु के बिना धर्मस्वरूप को नहीं पा सकते।
श्री गुणानुरागकुलक १०६