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अत एव मन से किसी की बुराई न करो, वचन से किसी की निन्दा या दोषारोप न करो और काया से सर्वत्र शान्तिभाव फैलाने की कोशिश करो परन्तु जिस से कषायाग्नि बढ़े, वैसी प्रवृत्ति न करो। परदोष निकालता हुआ कोई भी उच्चदशा को प्राप्त नहीं हुआ किन्तु अधमदशा के पात्र तो करोड़ों हुए हैं। जो सब के साथ मैत्री भाव रखते हैं, यथाशक्ति परोपकार करते हैं और स्वप्न में भी परदोषों पर दृष्टि नहीं डालते वे सब के पूज्य बन कर महोत्तम पद विलासी होते हैं। पुरुषों के भेद दिखा कर उनकी निन्दा करने का निषेध करते हैं
चउहा पसंसिणिज्जा, पुरिसा सव्वुत्तमुत्तमा लोए।
उत्तम-उत्तम उत्तम, मज्झिमभावा य सव्वेसिं।।१३।।
जे अहम अहम-अहमा, गुरुकम्मा धम्मवज्जिया पुरिसा
ते वि य न निंदणिज्जा, किंतु तेसु दया कायव्वा।।१४।।*
शब्दार्थ-(लोए) संसार में (सन्बुत्तमुत्तमा) सर्वोत्तमोत्तम १, (उत्तम-उत्तम) उत्तमोत्तम २, (उत्तम) उत्तम ३, (य) और (मज्झिमभावा) मध्यमभाव ४, (सब्वेसिं) सब पुरुषों के (चउहा) चार
* चतुर्डी प्रशंसनीयाः पुरुषाः सर्वोत्तमोत्तमा लोके। उत्तमोत्तमा उत्तमा, मध्यमभावाश्च सर्वेषाम्।। अधमा
अधमाधमा, गुरुकर्माणो धर्मवर्जिताः पुरुषाः।। तेऽपि च न
- निन्दनीयाः, दया तेषु कर्तव्या। १४।
श्री गुणानुरागकुलक १०५
किन्तु