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भावार्थ - भव्यो ! यदि तुम्हें संसार में बड़प्पन की इच्छा हो और सब में अग्रगण्य बनने की इच्छा हो तो दूसरों के दोष निकालना छोड़ दो तो सब में तुम्ही को मुख्यपद प्राप्त होगा, और सद्गुणी बनोगे ।
विवेचन - हर एक महानुभावों को यह इच्छा अवश्य उठती रहती है कि - हमारा महत्त्व बढ़े, हमारा स्वामित्व बढ़े, हमारा संमान (सत्कार) होता रहै और सर्वत्र हमारी यशः कीर्ति फैलती है। इसी आशा से संसार में सब कोई दुःसाध्य कार्यों को भी अनेक दुःख सह करके पार लगा कर उच्चतम उपाधि को संपादन करते हैं । चाहे साधु हो, चाहे गृहस्थ हो, सबकी प्रबल इच्छा वडप्पनरूपी जंजीर से जकड़ी हुई रहती है। बहुत से मनुष्य तो उसी इच्छा का सदुपयोग कर शुभ फल उपार्जन करते हैं, और बहुत से उसका दुरुपयोग कर अशुभ फल प्राप्त करते हैं। कोई-कोई तो सब से ऊँची सीढ़ी पर चढ़ कर भी उस महोत्तम इच्छारूप बल का, मद मात्सर्य और गच्छममत्व आदि दोषों में निमग्न हो दुरुपयोग कर शुभ फल
स्थान में अशुभ फल संग्रह करते हैं। क्यों कि अज्ञानदशा नियम से कार्योत्साह और शुभ इच्छा रूप बल को समूल उच्छेदन कर डालती है, और वैर विरोध बढ़ा कर महा उपद्रव खड़ा कर देती है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग आदि अज्ञान दशा से ही प्राणीमात्र इस दुःखमय संसारचक्र में पड़कर अनेक बार गोता खा चुके हैं और चौरासी लाख योनि में विवश होकर जन्म ले दुःख भोग चुके हैं। अज्ञानदशा से दुराचार की वृद्धि, असत्यमार्गों का पोषण, मात्सर्यादि दुर्गुणों की उत्पत्ति, धार्मिक रहस्य समझने का अन्तराय और कुबुद्धि पैदा होती है। मिथ्याभिमान से अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करना, धार्मिक और जातिविरोध बढ़ाना भगवान के वचनों से विरुद्ध भाषण करना गुणिजनों के साथ मात्सर्य रखना, साधुजनों का अपमान करना और असत्पक्षों का आचरण करना, यह अज्ञानदशा की ही लीला है।
अज्ञान और ज्ञान
अज्ञानी मनुष्य को हितकारक और अहितकारक मार्ग का ज्ञान नहीं होता और उसे जितनी उत्तम शिक्षाएँ दी जावें वे सब अहितकारक मालूम होती हैं। विद्वानों का कथन है कि -अन्धकार
१०० श्री गुणानुरागकुलक