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इस वास्ते ग्रन्थकारों ने हर एक नीति का शिक्षण गुरुगम से प्राप्त करना उत्तम कहा है। परिपूर्ण विद्वान् होने पर भी गुरुगम्य - धार्मिक रहस्यों को अच्छी तरह नहीं जान सकता ।
कहा भी है कि
विना
गुरुभ्यो
धर्म न जानाति
आकर्णदीर्घोज्ज्वललोचनोऽपि,
गुणनीरधिभ्यो, विचक्षणोऽपि ।
दीपं
विना
पश्यति
नान्धकारे । । १ । ।
भावार्थ – सद्गुणरत्नों के रत्नाकर (समुद्र) गुरुवर्य की कृपा के बिना बुद्धिमान मनुष्य भी धर्म को नहीं जान सकता है। जैसे - कोई मनुष्य बड़े-बड़े निर्मल लोचन होने पर भी अन्धकार स्थित वस्तुओं को दीपक के प्रकाश के बिना नहीं देख सकता ।
दीपक की तरह गुरुवर्य धार्मिक मर्मों को स्पष्टरूप से दिखाते हुए हृदय स्थित मिथ्यात्व रूप अन्धकार को नष्ट कर नीति का प्रकाश कर सकते हैं। श्रावकवर्ग में नीति का सुधार तभी हो सकता है जब गच्छनायक परस्पर सहनशीलता और मैत्रीभाव को धारण कर सर्वत्र नीति मय उपदेश देवें और उसी के अनुसार उनसे वर्ताव करा कर उनको मात्सर्य से विमुख करें। क्योंकि — मात्सर्य दोष पराभव और अवनति का मुख्य धाम है, इसके विनाश किये बिना उन्नति और विजय नहीं हो सकती, ईर्ष्या ही मनुष्यों के उत्तम विचार, बुद्धि, सत्कार्य और उत्साह आदि को नष्ट कर देती है। जैन समाज का वर्तमान समय में जो अधःपतन हो कर प्रतिदिन ह्रास हो रहा है उसका मूल कारण ईर्ष्या ही है। पूर्व समय में जो जो गच्छनायक थे वे एक दूसरे की उन्नति देख आनन्दित होकर परस्पर एक दूसरे के सहायक बनते थे, किन्तु ईर्ष्याभाव कोई किसी से नहीं रखता था इससे उन्होंने सर्वत्र धर्म की महोन्नति और धर्म प्रचार किया है ।
महानुभावो ! थोड़ा अपने पूर्वाचार्यों के किये हुए उन्नति मार्ग के कारणों को खोजो, और मात्सर्य के दुर्गुण को विचार कर छोड़ो तो तुम्हारा भी अभ्युदय शीघ्र ही होगा। यदि गुणवानों के गुणों को देखकर आनन्दित न होंगे तो विशेष पराभव होगा और कहीं भी
श्री गुणानुरागकुलक ४५