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अर्थात्-सेठ के उत्तम गुणों का अनुकरण नहीं कर सका, किन्तु ईर्ष्या के आवेश में आ कर सेठ की सर्वत्र निन्दा करने लगा। लेकिन लोगों ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया, किन्तु प्रत्युत धन्नूलाल को ही फटकारना शुरू किया, तब वह दीनवदन हो सेठ के छिद्रों का अन्वेषण करने में उद्यत हुआ, परन्तु जो लोग हमेशा दोषों से बच कर रहते हैं, और जो सदाचारशाली पुरुष कुमार्गों का अनुकरण ही नहीं करते, उनमें दोषों का मिलना बहुत कठिन है। धन्नूलाल शिर पीट-पीट कर थक गया तोभी सदाचारी सेठ के अन्दर वह किसी हालत में छिद्र नहीं पा सका।
एक दिन सैठ ने पिछली रात को निद्रावसान में विचार किया कि मैंने पूर्व भवोपार्जित पुण्योदय से इतनी लक्ष्मी प्राप्त की है, और सब में अपना महत्त्व जमाया है, इस वास्ते अब कुछ न कुछ सत्कार्य करना चाहिये, क्योंकि सद्धर्ममार्ग में व्यय की हुई लक्ष्मी ही पुण्यतरु की वर्टिका है; जिन्होंने लक्ष्मी पाकर उन्नतिमय कार्य नहीं किये, उनका जीना संसार में व्यर्थ है। ऐसा विचार कर सेठ ने निश्चय कर लिया कि अच्छा दिन देख के सकुटुम्ब 'शत्रुजय' महातीर्थ की यात्रा करनी चाहिये।
तदनन्तर शुभ दिन, वार और नक्षत्र देखकर सेठ ने सकुटुम्ब यात्रा के लिये प्रयाण किया। सब लोग गाँव के बाहर तक पहुँचाने आये। इस अवसर में धन्नूलाल ने 'विनाशकाले विपरीतबुद्धिः' इस वाक्य का अनुकरण कर विचारा कि आज कोई अपशकुन हो जावे तो ठीक है, जिससे सेठ यात्रा न कर सके, परन्तु सेठ के भाग्योदय से सब शुभ शकुन ही हुए। तब धन्नूलाल शीघ्र अपनी नाक काट कर सेठ के सम्मुख आया, उस समय साथ के लोग बोले सेठ साहब ! आज शकुन खराब मालूम होते हैं, इससे प्रयाण करना अच्छा नहीं है। कहा भी है किमदपानी पागल पुरुष, नकटा संमुख आय। खोड़ा भूखा बाँझनी, न करहु गमन कदाय।।
भावार्थ अगर दारू का घड़ा, पागल, नकटा, लूला, भूखे मरता मनुष्य और बाँझनी स्त्रियाँ गमन करते समय सामने मिल जावें, तो पीछे लौट आना ही हितकर है, किन्तु आगे जाना ठीक नहीं है।
श्री गुणानुरागकुलक ५१