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इसी से शास्त्रकारों ने जातिचंडाल, कर्मचंडाल, और क्रोध चंडाल के उपरान्त निन्दक को चौथा चंडाल कहा है, क्योंकि निन्दा करने वाला पृष्ठ मांसखादक है, वह निरन्तर दूसरों के निन्दारूप मैल (विष्ठा) को साफ किया करता है। निन्दा करने वालों को परापवाद बोलने में बहुत आनन्द होता है, परन्तु वह आनन्द उनका भवान्तर में अत्यन्त दुःखदायक होता है। संसार में और पापों की अपेक्षा निन्दा करना महापाप है, इसी विषय की पुष्टि के लिये 'श्री समयसुन्दरसूरिजी' लिखते हैं किनिन्दा म करजो कोइनी पारकी रे,
निन्दाना बोल्यां महापाप रे। बैर विरोध बांधे घणो रे, निन्दा करतो न गिणे माय बाप रे।।
।। निन्दा. ।।१।। दूर बलन्ती कां देखो तुम्हे रे?,
पगमां बळती देखो सहु कोय रे। परना मेलमां धोया लूगड़ा रे, कहो केम ऊजला होय रे?।।
। निन्दा. ।।२।। आप संभालो सहु को आपणी रे, ___ निन्दानी मूको पड़ी . टेव रे। थोड़े घणे अवगुणें सहु भस्या रे, केहना नलिया चूवे केहना नेव रे।।
निन्दा. ।।३।। निन्दा करे ते थाये नारकी रे, __तप जप कीधं सहु जाय रे। निन्दा करो तो करजो आपणी रे, ___ जेम छूटकबारो थाय रे।।
निन्दा. ।।४।।
७८ श्री गुणानुरागकुलक