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देश छीन कर चक्रवर्ती राजा बन चुके हैं तथा कई बार चारों निकाय के उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ देवों में उपज चुके हैं, एवं कई बार नरक गति में पैदा हो कर असह्य दुःख सहन कर चुके हैं, इसी प्रकार कई बार मल मूत्र कर्दम आदि के मध्य में कीट योनि में उत्पन्न हो चुके हैं, कई बार अति निन्दनीय गतियों में निवास कर नाना दुःखों का अनुभव होने पर भी सुख मान कर रह चुके हैं, कई बार चौरासी लक्ष जीवयोनी रूप चौवटा के बीच में कौड़ी के अनन्त वें भाग में बिक चुके हैं। इसलिये हे मूर्यो! जरा दृष्टि देकर विचारो कि अब भद किस पर किया जावे, क्योंकि हर एक प्राणी की पूर्वावस्था तो इस प्रकार की हो चुकी है तो ऐसी दशा में गर्व करना नितान्त अयुक्त है और तीनों काल में इससे फायदा न हुआ और नहीं होगा। देखो संसार में किसी का मान नहीं रहा, राजा रावण ने अभिमान से 'रामचन्द्र' जैसे न्यायनिष्ट महात्मा के साथ वैर-विरोध बढ़ा कर लङ्का का जयशाली राज्य खो दिया, और आखिर मर कर नरक कुण्ड में पड़ा तथा दुःखी हुआ, महात्मा 'बाहुबली' मुनि मुद्राधारण कर एक वर्ष पर्यन्त कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े रहे, परन्तु अभिमान के सबब से उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ, किन्तु जब भगवान श्रीऋषभदेव स्वामीजी की भेजी हुई 'ब्राह्मी' और 'सुन्दरी' ने आकर कहा कि-'हे बंधव! गज ऊपर से नीचे उतरो, गजारूढ़ पुरुषों को केवल ज्ञान नहीं होता' इस प्रकार उत्तमोत्तम प्रभावशाली सुभाषित वचनों को सुन कर शान्तिपूर्वक विचार करने से 'बाहुबली' ने अपनी गंभीर भूल को स्वीकार कर लिया और विचार किया कि वास्तव में ये महासतियाँ ठीक कहती हैं मैं मानरूपी हाथी के ऊपर चढ़ा हुआ हूँ, इसी से अब तक मुझे केवल ज्ञान नहीं हुआ तो अब मुझ को उचित है कि इस मानगज से उतर कर अलग हो जाना चाहिये, ऐसा विचार के मिथ्याभिमान का त्याग किया, फिर क्या था तात्कालिक कैवल्य ज्ञान उत्पन्न हो गया।
पाठक ! जो अभिमान दशा को छोड़ कर विनय गुण का सेवन करता है वह चाहे चक्रवर्ती हो या भिखारी, सब साधुभाव में एक समान है। इस विषय में यदि चक्रवर्ती यह शोचे कि मैं तो पहिले भी महाऋद्धिमान था, और अब भी सब का पूजनीय हूँ तो यह अभिमान करना व्यर्थ है क्योंकि यह आत्मा संसार में सभी पदवियों का
८६ श्री गुणानुरागकुलक