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लाख करोड़ अरव्व भये, प्रथिवपति होनकी चाह थगेगी । ।
स्वर्ग पाताल को राज कियो,
लाय लगेगी ।
तृष्णा अति से अति एक सन्तोष
'सुन्दर'
विना,
शठ ! तेरि तो भूख कभूँ न भगेगी। १ । ।
O
तीनोंहिं लोक में
अहार कियो,
अरु सर्व समुद्र पियो है पानी और जठे? तठ ताकत बोलत, काढ़त आँख डरावत प्रानी। दाँत देखावत जीभ हलावत, ताहि मैं तोय डाकन जानी खात भये कितनेई दिन,
अजहूर
न
अघानी | |2||
हे तृसना ! लोभाम्बुधि में अनेक राजा, महाराज, सेठ, साहूकार, देव, दानव, इन्द्र आदि हाय हाय करते तना चुके हैं किन्तु तोभी तृष्णा किनी को सन्तोषित नहीं कर सके। स्वर्णमृग के लोभ से रामचन्द्र जी अनेक दुःखों के पात्र बने थे - इसी पर एक कवि ने कहा हैहैममृगस्य
असंभवं
जन्मः,
रामो लुलुभे मृगाय । समापन्नविपत्तिकाले,
तथापि
प्रायः
धियोऽपि
पुंसां मलिनीभवन्ति । । १।।
भावार्थ- सुवर्ण का मृग होना असंभव है, यह जानते हुए भी रामचन्द्रजी मायामय मृग के लिए लोभी हुए। प्राय: करके जब विपत्ति आने वाली होती है तब लोभवश मनुष्यों की बुद्धि मलिन हो जाती है ।
१ जहाँ तहाँ; 2 अब भी; ३ तृप्त हुई ।
श्री गुणानुरागकुलक ६१