________________
ही उत्पन्न होते हैं। देखिये कषायों के आवेश में ही मनुष्यादि प्राणी युद्ध करते हैं, और सम,विषम और भयङ्कर स्थानों में गमन करते हैं, तथा अनेक संबंध जोड़ते हैं, एवं राज्यादि समृद्धि का संग्रह करते हैं,
और परस्पर एक दूसरे के साथ मात्सर्यभाव रखते हैं, इसी प्रकार गुणिजनों की निन्दा, धर्म की अवहेलना और असत्यमार्ग का आचरण करते हैं, तथा परस्पर वैर विरोध बढ़ाते हुए परस्पर एक दूसरे को बिना कारण कलड़ित करते हैं, इत्यादि अनेक दुर्गुण कषायों के संयोग से आचरण करना पड़ते हैं, जिससे किया हुआ धर्मानुष्ठान भी निष्फल हो जाता है, और तज्जन्य फलों का अनुभव भी विवश होकर भोगना पड़ता है। इसी कारण से कषायसंपन्न मनुष्यों की पालन की हुई संजम क्रिया भी सफल नहीं होती, किन्तु प्रत्युत उसका फल नष्ट हो जाता है। लिखा है किजं अज्जियं चरितं, देसूणाए अ पुनकोडीए। तं पि कसायपमत्तो, हारेइ नरो मुहुत्तेणं ।।१।।
भावार्थ देशोन पूर्वक्रोड़ वर्ष पर्यन्त पालन किये हुए चारित्रगुण को मनुष्य कषायों से प्रमत्त होकर अन्तर्मुहुर्त मात्र में हार जाता है।
शास्त्रकारों ने कषायों के भेद इस प्रकार दिखाये हैं कि
१. अनन्तानुबन्धी-क्रोध, मान, माया और लोभ। अनन्तानुबन्धी उसको कहते हैं जिसके उदय से सम्यक्त्वादि सद्धर्म की प्राप्ति न होवे और जो कदाचित् प्रथम सम्यक्त्व आया हो तो भी वह नष्ट हो जावे। अनन्तानुबन्धी क्रोध-पर्वत की रेखा समान, मान–पत्थर के स्तंभ समान, माया कठोर बाँस की जड़ समान,
और लोभ कृमि के रंग समान है। यह कषाय उत्कृष्ट से जावज्जीव तक रहता है, इसके उदय से देव गुरु धर्म के ऊपर यथार्थ श्रद्धा नहीं होने पाती और इसके उदय से बारंबार चारगति के दुःख प्राप्त होते हैं।
२. अप्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया और लोभ । 'अप्रत्याख्यानी' उसको कहते हैं जिसमें विरति रूप परिणाम नहीं हो
और समकित की प्राप्ती होने पर भी देश-विरति का उदय न हो। अप्रत्याख्यानी क्रोध पृथ्वी की रेखा समान, मान-अस्थिस्तंभ समान,
श्री गुणानुरागकुलक ६५