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निरोध, तथा सांसारिक वासनाओं का प्रपञ्च छोड़ कर अनन्त सुखानुभव करते हैं। तथा सन्तोष के बल से ही सारा संसार वशीभूत होता है। शरीरारोग्यता का असाधारण औषध, दरिद्रता का वैरी, मोहराज के सैन्य को चूर्ण करने वाला, कामरूपी हस्ती का प्रहारकारक और द्वेषरूपी उन्मत्त हाथी को भक्षण करने वाला सिंह के समान एक सन्तोष ही है। अतएव जिसको सन्तोष प्राप्त हुआ है उसको तीनलोक का साम्राज्य हस्तगत समझना चाहिए, जो बात असन्तोषी को सैकड़ों उपाय से सिद्ध नहीं होती, वह सन्तोषी को बिना परिश्रम ही सिद्ध हो जाती है।
___ इसलिए तीन प्रकार की एषणाओं की कनिष्ठ जाल से लपेटी हुई लोभदशा को घोर संसारवर्डिका और अनेक कष्टदायिका समझ कर सर्वथा त्याग देना ही चाहिए, और सन्तोष गुण का आश्रय ले कर अनेक सद्गुण और अनन्त सुख होने का सन्मार्ग पकड़ना चाहिए।
कषायों का त्याग अवश्य करना चाहिए- कषायों के प्रभाव से ही यह आत्मा संसार में परिभ्रमण करता चला आया है और नाना गतियों में दुःख सहता रहता है। संसार में जो बध बन्धन आदि दुःख देखे जाते हैं, वे सब कषायों के संयोग से * लोके मे वितताऽस्तु कीर्तिरमला लोकैषणेत्युच्यते।।
सच्छिष्यात्मजसंस्पृहा निगदिता पुत्रैषणा कोविदैः। वित्तं मे विपुलं भवेदिति, हि तु ख्याताऽस्ति वित्तैषणा, ता एता अपहाय मुक्तिपथिकः सळ्यासमालम्बते।।१।। ___भावार्थ संसार में मेरी निर्मल कीर्ति फैले, अर्थात् सब जगह मेरी प्रतिष्ठा बढ़े,सब लोग मेरी निरन्तर स्तुति करते रहें और सब कार्यों में मेरी सफलता होवे इत्यादि आशा करने का नाम 'लोकैषणा' है १, अच्छे, अच्छे गुणवान, कुलवान, रूपलावण्यादिसंपन्न पुत्र, पुत्री व शिष्य हों इत्यादि विचारने का नाम 'पुत्रैषणा' है २, नाना प्रकार की संपत्तियाँ मुझे प्राप्त हों, और मैं धन से सब जगह प्रसिद्ध होऊँ; इत्यादि वांछा रखने का नाम 'वित्तैषणा' है। इन तीन एषणाओं को छोड़ कर मुमुक्षु लोग संन्यास अर्थात् योगाभ्यास का अवलंबन लेते हैं।
६४ श्री गुणानुरागकुलक