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अज्ञानदशा में पड़ कर और मिथ्याभिमान में निमग्न हो सत्य वात को भी स्वीकार नहीं करने को 'मोह' कहते हैं। जाति, कुल, बल, रूप, ऐश्वर्य आदि के अभिमान से दूसरों को तुच्छ समझने को 'मद' कहते हैं। दूसरों को दुःखी देख कर और धूत, क्रीड़ा, मृगया (शिकार) आदि कुकार्यों में आनन्दित होने को 'हर्ष' कहते हैं।
काम से ब्रह्मचर्य का, क्रोध से क्षमा महागुण का, लोभ से सन्तोष का, मोह से विवेक का, और हर्ष से नीतिमार्ग का विनाश होता है। अत एव गुणवान् बनने का मुख्य उपाय यही है कि सर्व प्रकार से अकषायीभाव को धारण कर निरवद्य क्रियानुष्ठान करना। आत्मप्रबोध ग्रन्थ के तीसरे प्रकाश में लिखा है कितत्तमिणं सारमिणं, दुवालसंगीऍ एस भावत्थो। जं भवभमणसहाया, इमे कसाया चइज्जति।।१।।
भावार्थ-समस्त द्वादशाङ्ग वाणी का तात्पर्य यही है, तथा सब धमों का तत्त्व भी यही है, और सब संजमपरिपालन का सार भी यही है कि संसार पर्यटन में सहायता देने वाले क्रोधादि कषायों का हर प्रकार से त्याग करना चाहिए।
__इसलिए शान्तिमहागुण को धारण करने में सदा उद्यत रहना क्यों कि शान्तस्वभाव से क्रोध का, विनय भाव से मान का, सरलता से माया का, और सन्तोष महागुण से लोभ का नाश होता है। ग्रन्थकारों का यहाँ तक मन्तव्य है कि एक-एक कषाय का जय करने से क्रमशः सबका जय होता चला जाता है और अन्त में अकषायित्व भाव से संसार का अन्त हो जाता है। श्री आचारासूत्र के तीसरे अध्ययन के चौथे उद्देशे में लिखा है कि
जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी, जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी, जे पेजदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से णिरयदंसी, जे णिरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी।
भावार्थ जो क्रोध छोड़ता है वह मान को छोड़ता है, जो मान को छोड़ता है वह माया को छोड़ता है, जो माया को छोड़ता है वह
श्री गुणानुरागकुलक ६७