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के समान लोभ है। क्रोध से प्रीति का, मान से विनय का, माया से मित्रता का, और लोभ से प्रीति, विनय, मित्रता आदि सब सद्गुणों का नाश होता है। सब दर्शनकारों का यही मन्तव्य है कि लोभ से लाभ कुछ नहीं है प्रत्युत हानि तो अवश्य ही होती है। लोभ का यह स्वभाव ही है कि ज्यों-ज्यों अधिक लाभ हुआ करता है त्यों-त्यों उसका वेग अधिकाऽधिक बढ़ा करता है, और उस लोभ के नशे में आपत्तियाँ भी संपत्तिरूप जान पड़ती है। लोभी मनुष्य की इच्छा अपरिमित होती है जिसका अन्त ब्रह्मा भी नहीं पा सकता। सब समुद्रों में स्वयंभुरमण असंख्येय योजन प्रमाण का गिना जाता है उसका पार मनुष्य किसी काल में नहीं पा सकता, परन्तु किसी देव की सहाय मिल जाय तो उसका भी पार करना कोई भारी बात नहीं है, लेकिन हजारों देवेन्द्रों का सहाय प्राप्त होने पर भी लोभाम्बुधि का तो पार नहीं आ सकता। सर्वज्ञ भगवन्तों ने सूत्रों के द्वारा निरूपण किया है कि
सुवण्णरूप्पस्स य पव्वया भवे,
सिया हु केलाससमा असंखया। नग्स्स लुद्धस्स न तेहिँ किंचि;
इच्छा हु आगामसमा अणंतिया।। भावार्थ-एक लक्ष योजन प्रमाण सुमेरु पर्वत के बराबर स्वर्णमय और रूप्यमय असंख्यात पर्वत भी प्राप्त हो जाँय तो भी लोभी को उससे लवलेश भी तृप्ति नहीं हो सकती क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। जैसे आकाश अन्त रहित है, वैसे इच्छा भी अन्त रहित है।
जैसे किसी मनुष्य को 'संनिपात' हो जाता है तब वह अपने स्वभाव को भूल कर अनेक चेष्टा करने लगता है, उसी तरह लोभी मनुष्य भी नाना चेष्टाओं के चक्र में घूमने लग जाता है, और हिंसा, चोरी, झूठ, विश्वासघात आदि प्रयत्न कर लोभ का खड्डा पूरा करने में उद्यत बना रहता है, परन्तु तृष्णा की पूर्ति नहीं हो सकती। एक कवीश्वर ने लिखा है कि
जो दश वीस पचास भये,
शत होत हजारन चाह जगेगी। ६० श्री गुणानुरागकुलक