________________
कलह; अशान्ति आदि दोष शीघ्र ही नष्ट कर देते हैं। परस्पर क्रोध बढ़ जाने से भ्राता-धाता में, पुत्र-पिता में, माता-पुत्र में, भगिनी-भ्राता में, पति-पत्नी में लड़ाई उत्पन्न होकर उस देश, उस कुल और उस जाति का बहुत शीघ्र ही नाश हो जाता है।
इसलिये महानुभावो! यदि अपना, और अपने धर्म, देश, जाति का अभ्युदय करना चाहते हो तो असत्संग से दूर होने का उपाय तथा सज्जन पुरुषों की आज्ञा पालन और उनका आदर करना सीखो। जब तक सत्संग नहीं किया जायेगा तब तक अभ्युदय की अभिलाषा करना मृगतृष्णा के समान है। कहा भी है कि'सङ्कः सर्वात्मना त्याज्यः, स चेद् हातुं न शक्यते। स सद्भिः सह कर्तव्यः, सङ्क; साहिभेषजम् ।।१।।'
भावार्थ हर तरह से 'सङ्क' त्याग करना चाहिये, किन्तु यह बहुत कठिन है, इसलिये वह सङ सज्जनों का ही करना चाहिये, क्योंकि सङ्गरूपी सर्प का भेषज (औषधि) सत्सङ्ग ही है।
पाठकगण! इन सब बातों का परिणाम भी यही है कि मनुष्यों को संसार का प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिये सत्संगम करने का अभ्यास करते रहना चाहिये। जो निरन्तर सत्समागम करने में उद्यत रहते हैं वे उक्त ब्राह्मण की तरह अवश्य अपनी उन्नति कर सकते है; क्योंकि अभ्यास से ही सब गुण साध्य हैं। कहा भी है किअभ्यासेन क्रियाः सर्वाः, अभ्यासात्सकलाः कलाः। अभ्यासाद्धयानमौनाऽऽदि, किमभ्यासस्य दुष्करम् ?।।१।।
भावार्थ अभ्यास से सब क्रियाएँ, अभ्यास से सब कलाएँ, और अभ्यास से ही ध्यान, मौन आदि होते हैं। संसार में ऐसी क्या बात है, जो अभ्यास से साध्य न हो ? अर्थात् अभ्यास से सब बात सिद्ध हो सकती है।
____ अतएव अपनी उन्नति होने के लिये प्रत्येक मनुष्यों को सद्गुणों का प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिये, जिससे भवान्तर में भी सद्गुण की प्राप्ति हो।
७६ श्री गुणानुरागकुलक