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प्रिय पाठक ! उक्त सुशिक्षावचनों से आत्मोन्नति बहुत शीघ्र हो सकती है इससे इनको तुम अपनी आत्मा में धारण करो और सज्जनता से व्यवहार करो, जिससे तुम्हारी आत्मा निरर्थक पापकर्म से बचकर सुखी बनें, यदि तुम परापवाद प्रिय बनोगे तो आत्मोद्धार कभी नहीं हो सकेगा ।
जिससे कषायाग्नि शान्त हो वह मार्ग धारण करना चाहिये* तं नियमा मुत्तब्वं, जत्तो उप्पज्जए कसायऽग्गी । तं वत्युं धारिज्जा, जेणोवसमो कसायाणं । । ११।।
शब्दार्थ - ( जत्तो) जिस कार्य से ( कसायऽग्गी) कषायरूप अग्नि (उप्पज्जए) उत्पन्न होती हो (तं) उस कार्य को (नियमा) निश्चय से (मुत्तव्वं ) छोड़ना चाहिये और (जेण) जिस कार्य से (कसायाणं) कषायों का ( उवसमो) उपशम हो (तं) उस ( वत्युं) वस्तु को —कार्य को (धारिज्जा) धारण करना चाहिये ।
भावार्थ-उस कार्य को अवश्य छोड़ना चाहिये जिससे कषायरूप अग्नि प्रदीप्त होती हो और उस कार्य को अवश्य आचरण करना चाहिये जिससे कषायों का उपशम हो ।
विवेचन – जिसके निमित्त से अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त चारित्र आदि उत्तम गुणों का विनाश हो जावे, तथा चौरासीलक्ष जीवयोनि में अनेक असा दुःखों का अनुभव करना पड़े उसका नाम कषाय है। कष-अर्थात् क्लेशों का जिससे आयलाभ हो सो कषाय कहलाता है जिस प्रकार अग्नि अपने अनुरूप संयोग को पा कर प्रदीप्त हुआ करती है, उसी प्रकार कषाय भी अपने अनुरूप संयोगों को प्राप्त हो प्रज्वलित हो उठते हैं, और उत्तम गुणों का घात कर डालते है। कषाय चार हैं— क्रोध १, मान २, माया ३, और लोभ ४ । इन चार कषायों के विषय में शास्त्रकारों ने बहुत कुछ
* तनियमेन मोक्तव्यं, यस्मादुत्पद्यते कषायाग्निः । येनोपशएः
तद्वस्तु
धारयेद्
कषायाणाम् | ११ |
श्री गुणानुरागकुलक ८१