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क्रोध से पावे अधोगति जाल को,
क्रोध चँडाल कहे सब कोई।। क्रोध से गाली कही बढ़िबेढऽरु, ___ क्रोध से सज्जन दुर्जन होई। यहे 'धसिंह' कहे निशदीह,
सुनो भैया क्रोध करो मत कोई।।२।। भावार्थ अत्यन्त क्रोध करने से लोगों के साथ वैरभाव बढ़ता है और यशः कीर्ति का सत्यानाश हो जाता है, क्रोध के समागम से सद्ज्ञान व सम्यक्त्व दर्शन की शुद्धि नहीं हो सकती, क्रोध के योग से अधोगति-नरक तिर्यञ्च आदि नीच गति का जाल प्राप्त होता है, संसार में सभी लोग क्रोध को चांडाल के बराबर समझते हैं, जिसके सम्पर्क से मनुष्य अशुचि हो जाता है, गुस्सेबाज मनुष्य गाली गुप्ता देकर कंकास (कलह) के वशवर्ती होता है, क्रोध रूप अज्ञान के सबब से सजन पुरुष भी दुर्जन हो जाता है, इसलिये हे महानुभावो! क्रोध सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। क्योंकि यह अनेक सन्तापों का स्थान है। कहा भी है कि
आप तपे पर संतपे, धन नी हानि करेह । कोह पइले देह घर, तिनि विकार धरेह।।१।।
आत्म-शरीर रूप घर के अन्दर उठा हुआ क्रोध अपने को क्लेश, और दूसरों को सन्ताप तथा बाह्याभ्यन्तर धन की हानि रूप तीन विकार पैदा करता है। यह बात अनुभव सिद्ध है कि मनुष्य को जब क्रोध उत्पन्न होता है तब वह थर थर काँपने लग जाता है,
और उसके सारे शरीर पर पसीना या ललाई चढ़ जाती है, यहाँ तक कि उस समय में उसके सामने जो अत्यन्त प्रियमित्र भी कोई आ जाय तो भी वह शत्रुभूत मालूम होता है। इसी से कहा जाता है कि-'क्रोधो नाम मनुष्यस्य, शरीराद् जायते रिपुः' मनुष्यों के शरीर से ही क्रोध रूपी शत्रु पैदा होता है जिससे धर्म और कुल कलंकित हो जाते हैं। क्योंकि 'क्रुद्धोहन्याद् गुरूनपि' अर्थात् क्रुद्ध मनुष्य अपने गुरु को भी मारता है। इसलिये रोष में जो बुद्धि पैदा होवे उसका अवश्य त्याग करना श्रेष्ठ है, क्योंकि किंपालफल की तरह क्रोध का परिणाम अनिष्टकर है।
श्री गुणानुरागकुलक ८३