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उपदेश दिया है, परन्तु यहाँ पर उसका दिग्दर्शन मात्र कराया जाता है।
क्रोध और उसका त्याग
अनेक अनर्थों का कारण, बोधिवीज का घातक, दुरितों का पक्षपाती, नरक भवन का द्वार, और चारित्रधर्म का बाधक क्रोध है । कोटि वर्ष पर्यन्त की हुई तपस्या इसी क्रोध के प्रसंग से नष्ट हो जाती है, अत एव इसको शान्त करने का ही उपाय करते रहना चाहिये, क्योंकि क्रोध प्राणी मात्र में परिताप उपजाने वाला है। कहा है किसवैया २३ सा
रीस सुं जहेर उद्वेग बढ़े अरु,
रीस सुं शीश फूटे तिन ही को। रीस सुं मित्र भी दाँत को पीसत, आवत मानुष नाहिं कहीं को ।। रीस सुं दीसत दुर्गति के दुख,
चीस करन्त तहाँ दिन हिं को । यों 'धर्मसिंह' कहे निशदीह,
करे नहिं रीस सोही नर नीको।।१।। भावार्थ — क्रोध करने से एक दूसरों के ऊपर जहर - कुत्सित (खोटें) घाट मढ़ने के विचार करने पड़ते हैं और अनेक उद्वेग (मानसिक क्लेश) खड़े होते हैं; सैकड़ों लोगों के साथ वैर विरोध और माथा कूट ( वकवाद) करना पड़ती है, क्रोधावेश में मनुष्य विश्वासी पर भी अप्रियता पूर्वक दाँत कड़कड़ाता है; और क्रोधी जान कर पाहुना तरीके भी कोई उसके पास नहीं आता, न उसकी कोई यथार्थ सार संभाल कर सकता है। क्रोध के प्रभाव से ही आखिर खोटी गति में पड़कर नाना प्रकार के बध बन्धनादि दुःख देखना पड़ते हैं, इसलिये सज्जनों को उचित है कि क्रोध के वशवर्त्ती न हों, क्योंकि जो महानुभाव क्रोध नहीं करते वे ही उत्तम और सन्मार्गानुगामी हैं । तिच्छन क्रोध से होय विरोधऽरु,
क्रोध से बोध की शोध न होई ।
८२ श्री गुणानुरागकुलक