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गुण ग्रह जो सहु को तणा रे, जेहमां देखो एक विचार 'कृष्ण' परे सुख पामशो रे, सुखकार
'समयसुन्दर'
रे।
रे।।
|| निन्दा. । । ५ । ।
इस पद्य का तात्पर्य यही है कि-दूसरों के दोष देखने की आदत छोड़ ही देना चाहिये, क्योंकि परदोष ग्रहण करने से केवल क्लेशों की वृद्धि ही होती है और तप जप आदि का फल नष्ट होता है । 'थोड़े घणे अवगुणें सहु भरया' इस लोकोक्ति के अनुसार किसी में एक, तो किसी में अनेक दोष होते ही हैं, अतएव दूसरों के दोष न देखकर अपने ही दोषों का अन्वेषण करना चाहिये, जिससे कि सद्गुणों की प्राप्ति हो । जो पुरुष परापवाद आदि दोषों को छोड़कर, सब के गुणों को ग्रहण करता है वही सुखी होता है। कहा भी है कि
यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन परापवादसस्येभ्यश्चरन्तीं
गां
भावार्थ - जो एक ही कर्म (उपाय) से जगत मात्र को अपने वश में करना चाहते हो तो परापवाद (परनिन्दा) रूप घास को चरती हुई वाणी रूप गौ को निवारण करो, अर्थात् स्ववश में रक्खो ।
कर्मणा ।
निवारय । । १ । ।
वास्तव में जो मनुष्य प्रियवचनों से सबके साथ बात करता है, और स्वप्न में भी किसी की निन्दा नहीं करता, उसके वश में सब कोई रहता है। और जो दूसरों के अवगुणों को ही देखा करता है, उससे सारा संसार पराङ्मुख रहता है। अतएव जिस बात के कहने से दूसरों को अप्रीति होती हो यदि वह सत्य भी तो उसे न बोलो, क्योंकि वैसा वचन अनेक विपत्तियों को पैदा करने वाला है, इससे दूसरों के विद्यमान व अविद्यमान दोषों को छोड़कर नीचे लिखे सुशिक्षावचनों को धारण करना चाहिये।
१, 'सच्चरित्र बनो, धार्मिक बनो, शिष्ट बनो, क्योंकि जब तुम मृत्यु शय्या पर होगे तो शुभकार्यों के सिवाय और कोई शान्ति न दे सकेगा । '
श्री गुणानुरागकुलक ७६