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जिन कार्यों के करने से इस लोक में निन्दा और परलोक में दुर्गति के दुःख प्राप्त हों उसे उभयलोक विरुद्ध कहते हैं। जैसे जुआ खेलना, मांसखाना, मदिरापीना, वेश्या गमन करना, शिकारखेलना, चोरी करना और परस्त्री से संभोग करना इत्यादि ये कार्य लोक में निन्द्य तथा तिरस्कार जनक और दुःख के दाता हैं। कहा भी है किइहैव निन्द्यते शिष्टैर्व्यसनासक्तमानसः। मृतस्तु दुर्गतिं याति, गतत्राणो नराधमः।।१।।
भावार्थ व्यसनों में आसक्त मनुष्य इसी लोक में सत्पुरुषों के द्वारा निन्दा का भाजन बनता है और वह नराधम अशरण हो मर कर दुर्गात को प्राप्त होता है। अतएव व्यवसनों का सेवन करना 'उभयलोक विरुद्ध' है।
इसलिये लोक विरुद्ध कार्यों का त्याग करने वाला सबका प्रिय बनता है और लोक प्रिय ही मनुष्य का सदुपदेश सबके ऊपर असर कर सकता है।
५, अक्रूरता मद मात्सर्य आदि दोषों से दूषित परिणाम वाला पुरुष धर्म का आराधन भले प्रकार नहीं कर सकता, इसलिये सरलपरिणामी मनुष्य ही धर्म के योग्य हो सकता है। क्योंकि सरलस्वभाववाला मनुष्य किसी के साथ वैर विरोध नहीं रखता, यहाँ तक कि वह अपने अपराधी पर भी क्षमा करता है, इससे उसको धार्मिक तत्त्व सुगमता से प्राप्त हो सकते हैं।
६, भीरुता पापकर्मों से डरते रहने को भीरुता कहते हैं। जिन कार्यों के करने से राजदंड, लोक में निन्दा, और परलोक में कुत्सितगतियों की प्राप्ति होती हो, वैसे कार्यों का त्याग करने वाला मनुष्य सुखों का भाजन बनता है। क्योंकि भीरु मनुष्य भवभ्रमण से डरता हुआ असद् व्यवहार में प्रवृत्त नहीं होता, इसी से उसको सद्गति प्राप्त होती है।
७, अशठता-निष्कपट भाव रखना, अर्थात्-प्ररूपणा, प्रवर्त्तना और श्रद्धा इन तीनों को समान रखना, क्योंकि जिसकी
५४ श्री गुणानुरागकुलक