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धारण करने वाले हों ७, विश्वोपकारी अनेक उपायों से प्राणियों का उपकार करने में प्रयत्न करते रहते हों, और सब से पूज्य होने पर भी निरहंकार रहते हों, किन्तु किसी का उपकार कर प्रत्युपकार (बदला) की इच्छा (दरकार) नहीं रखते हों ८, संपूर्ण चन्द्र मण्डल की तरह शुद्ध निरतिचार चारित्र धारक हों, समभाव ( शान्त - रस) में लीन रहते हों और सब किसी को वैर-विरोध कम करने का उपदेश देते हों ६, विनीत — आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल, गण, शास्त्र, और चैत्य ( जिन - प्रतिमा) आदि का यथार्थ विनय साँचवते हों १०, विवेकी - राजहंस की तरह दोषों को तजकर गुणों का ही ग्रहण करते हों, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार आप्तप्रणीत निर्दोष मार्ग ही आचरण करते हों ११; इत्यादि गुण सम्पन्न ही 'महापुरुष' कहे जाते हैं। न व्रते परदूषणं परगुणां वक्त्यल्पमप्यन्वहं, सन्तोषं वहते परर्धिसु पराबाधासु धत्ते शुचम् । स्वश्लाघां न करोति नोज्झति नयं नौचित्यमुल्लङ्घयत्युक्तोऽप्यप्रियक्षमां न रचयत्येतच्चरित्रं सताम् ॥१॥
भावार्थ - किसी मनुष्य के दोष न देखते हों १, दूसरों के अल्प गुणों की भी नित्य प्रशंसा करते हों 2, दूसरों की वृद्धि या समृद्धि देख कर सन्तोष रखते हों ३, दुःखियों को देख कर करुणा (शोक) करते हों ४, आत्मप्रशंसा न करते हों ५, दुःखित होने पर भी नीति मार्ग को न छोड़ते हों ६, सभ्यता रखते हों ७, और अपनी निंदा सुन कर भी क्रुद्ध न होते हों ८, ये सब महात्माओं के चरित्र हैं । अर्थात् — जिन पुरुषों का आचरण दोष रहित हो, जो सञ्चरित्रवान् तथा विद्या बुद्धि से संपन्न हो, जिनका अन्तःकरण निर्मल, तथा वाणी मधुर मनोहर प्रियंवदा हो, और जो जितेन्द्रिय सन्तोषी हो जिनका जीवन उच्च आदर्शमय हो, वे ही सज्जन पुरुष हैं, और यही सज्जन का लक्षण भी है। अतः सत्संगति संसार में मनुष्य के लिये स्वजीवन को उन्नत बनाने का, दिग्दिगन्तव्यापी यशोपार्जन करने का मार्ग तथा सन्तति को आनन्द प्राप्त कराने का पथ है।
सत्समागम से अनुभव मार्ग में प्रवेश हो कर अप्रतिम सुख प्राप्त होता है और पर वस्तुओं पर उदासीनता होती है। बाह्यदृष्टि का
श्री गुणानुरागकुलक ७१