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अभाव, वैराग्यदृष्टि का पोषण और निर्दोष सत्यमार्गाभिमुख गमन होता है। मिथ्यामति का विनाश, शुभमति का प्रकाश और उत्तरोत्तर गुणश्रेणी में प्रवेश होता है।
इस प्रकार वह ब्राह्मण शास्त्रोक्त युक्तियों के द्वारा विचार करता हुआ और सांसारिक क्षणिक सुखों का अनुभव कर जगज्जाल माया में मोहित न हो कर, छ महिना तक पर्यटन करने की प्रतिज्ञा पूर्ण हो जाने से उन्हीं महोत्तम सर्वत्र स्वतन्त्र परमोपकारी महात्मा के समीप आया और हाथ जोड़ कर विनयावनत भाव से कहने लगा कि
अब हम सन्तसमागम पाया, निज पद में जब आया । । टेर । । एक भूल के कारण मैंने, कितनी भूल बढ़ाया। अन्तर नयन खोल के देखा, तब निजरूप लखाया । । अ. । ।9।। इतने दिन हम बाहर खोजा, पास हि सन्त बताया। तिन कारन गुरु सन्त हमारे, छूवत नहीं धन माया । । अ । ।२।। सहस जन्म जो नजर न आवे, छिन में सन्त बताया। संतगुरु हैं जग उपकारी, पल में प्रभु दरसाया । । अ. । । ३ । । तीन लोक की संपत सब ही, हिरदय में प्रकटाया। शिवानन्द प्रभु सब जग दीसत, आनन्द रूप बनाया । । अ ।।४।।
हे महात्मन् ! आप की अनुपम कृपा से मैंने छ महीने पर्यन्त भ्रमण कर अनेक स्थानों में सांसारिक विनाशी सुखों का अनुभव कर लिया, परन्तु किसी जगह सुख का अंश भी नहीं दिख पड़ा ।
संसार में जिधर दृष्टि डाली जाय, उधर प्रायः दुःख ही दुःख है, किन्तु सुख नहीं है। मनुष्यादि प्राणी दुःखमय माया जाल में फंस कर अपने कर्मों के अनुसार अनेक प्रकार के शरीर धारण कर जन्म मरण सम्बन्धि असह्य क्लेशों को सहन करते फिरते हैं। संसार असार है और अज्ञान दशा से लोगों ने उसको स्वरूप मान रक्खा है, जैसे जल के अन्दर ऊँची-ऊँची लहरें उठती और तत्काल ही उसी में विलीन हो जाती हैं, इसी प्रकार भोग विलास भी चंचल और प्रकृष्ट दुःख दायक हैं। यह युवावस्था भी स्वल्पकालगामी ही है, स्वजनादिक में प्रीति भी चिरस्थायी नहीं है, इन्द्रियों की शक्ति भी प्रबल नहीं रहती, और इच्छाओं की पूर्ति भी परिपूर्ण नहीं हो सकती। क्योंकि जो मनुष्य अपनी इच्छाओं को बढ़ाता रहता है
७२ श्री गुणानुरागकुलक