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उसको शान्ति कभी नहीं हो सकती ? जैसे अग्नि पर जितना घी डालोगे उतनी ही वह अग्नि बढ़ती जायेगी। इसी तरह इच्छाओं को बढ़ाने में जो सदा लगा रहता है, उसका चित्त प्रतिसमय उद्विग्न और इच्छाओं की पूर्ति न होने से महा दुःखी बना रहता है। इसी भावार्थ का यह श्लोक भी है'न जातु कामः कामाना—मुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव, भूय एवाभिवर्द्धते' ।।१।।
इससे यह संसार अध्यात्मदृष्टि से केवल दुःखात्म और नीच गति दायक ही दीख पड़ता है, परन्तु जिन महानुभावों के ऊपर सन्त महात्माओं की दया हो गयी है, वे महानुभाव संसार में स्थित रहने पर भी महात्माओं के समान स्वजीवन को व्यतीत करते हैं और सदा निर्भय रहते हैं। क्योंकि उन्हें सांसारिक विषयों से उदासीनता बनी रहती है, इससे वे संसार में लिप्त नहीं होते। अत एव हे कृपा निधान ! हे जगदुद्धारक ! हे मुनिशक्रचक्रचूड़ामणे! अब मुझे आप अपने अनुसार शुद्ध मार्ग अर्पण कर अनुपम आनन्दाधिकारी बनाइये। क्योंकि अब मुझे कोई भी आपके सिवाय दूसरा सुखी या सुखदायक नहीं दीख पड़ता और न कोई आपके सिवाय स्वजन बन्धु वर्ग ही है। अतः परंत्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव सर्वं मम देवदेव !||२|| __ भावार्थ हे देवदेव! महात्मन् ! आप ही माता सदृश और आप ही पिता सदृश हैं, आप ही बन्धु और आप ही (उत्तम) मित्र सदृश हैं, आप ही विद्या और आप ही बल व धन सदृश हैं, आप ही सर्व-कुटुम्ब के समान हैं। .
क्योंकि सांसारिक कुटुम्ब तो विनाशवान् है किन्तु एक आपका ही समागम अविनाशी है, अर्थात् आपकी सेवा से ही अविनाशी अविच्छिन्न (शाश्वत) संपत्तियाँ प्राप्त हो सकती है। इसलिये आपकी सेवा में ही रह कर मैं अपना जीवन व्यतीत करना चाहता
श्री गुणानुरागकुलक ७३