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लगा कि यहाँ तो हलाहल दुःख मचा हुआ है। इससे यहाँ पर सुखानुभव करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि जहाँ केवल दुःख ही उपलब्ध है वहाँ सुख की संभावना करना भी व्यर्थ है।
बाजार से निराश हो ब्राह्मण एक प्रतिष्ठित साहूकार की हवेली के समीप आया। यहाँ हवेली की तरफ दृष्टि डाली तो मालूम हुआ कि इसमें एक श्रीमंत 'सेठ' गादी तकिया लगा कर आनन्दपूर्वक बैठा हुआ है और उसके आगे अनेक गुमास्ते काम कर रहे हैं, कई लोग सेठ की हाजरी बजा रहे हैं, अनेक पण्डित लोग स्तुति पाठ पढ़ रहे हैं, वन्दीजन नाना प्रकार का कीर्तन कर रहे हैं, और हाथी, घोड़ा, गाड़ी, इक्का बग्घी और हथियारबन्ध सिपाही आदि सजकर हाजरी में खड़े हुए हैं। इत्यादि धाम-धूम से संयुत सेठ को देखकर, ब्राह्मण मन में विचार करने लगा कि बस यह सेठ सम्पूर्ण सुखी दिखाई देता है। इसलिये महात्मा से इसके समान सुख माँग लूं, परन्तु साथ ही भाग्यवश यह विचार उठा कि-एक वखत सेठ से मिल कर इसके सुख का निर्णय तो अवश्य कर लेना चाहिये, क्योंकि अनिर्णीत विषय की याचना पीछे अहितकर होती है।
ऐसा हार्दिक विचार कर ब्राह्मण उस हवेली के भीतर जाने लगा कि चौकीदार ने उसे रोका, और कहा कि-'अरे! कहाँ जाता है?' ब्राह्मण ने जवाब दिया कि 'मैं सेठजी से कुछ पूछने के लिये जाता हूँ' चौकीदार ने कहा यहाँ ठहर, मैं सेठ साहब को इत्तला (सूचना) देता हूँ' ब्राह्मण दरवाजे पर खड़ा रहा, और चौकीदार ने भीतर जाकर सेठजी से कहा कि-'हजूर! एक ब्राह्मण आपसे मिलने को आया है, यदि आज्ञा हो तो उसको आने दूँ सेठ ने जवाब दिया 'अभी अवकाश नहीं है'। चौकीदार ने वापिस जाकर ब्राह्मण से वैसा ही कहा तब वह बाहर ही एक चबूतरे पर बैठ गया।
इधर सेठ किसी कार्य के निमित गाड़ी में बैठ कर बाहर निकला, इस समय ब्राह्मण आशीर्वाद देकर कुछ पूछने का इरादा करता है, इतने में तो सिपाही लोगों ने उसे बन्द कर दिया, सेठ की गाड़ी रवाना हो गयी। कार्य होने के बाद सेठ पीछे लौट कर आया कि फिर वह ब्राह्मण खड़ा हो कर कुछ पूछने लगा कि सेठ ने उसकी बात को न सुन कर, मुनीम से कहा 'इसको सीधा पेटिया
श्री गुणानुरागकुलक ६७